Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६५६-६१३
सम्यत्रत्वमागंणा/६०५
कहते हैं तथा वही आत्मा बाहरी जिस वायु को भीतर करता है, नि:श्वास लक्षण उस वायु को अपान कहते हैं। इस प्रकार ये उच्छ्वासनिःश्वास लक्षण वाले प्राणापान भी प्रात्मा का उपकार करते हैं, क्योंकि इनसे प्रात्मा जीवित रहती है। ये मन, प्राण और अपान मूर्त हैं, क्योंकि दुसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा इनका प्रतिघात प्रादि देखा जाता है। जैसे प्रतिभय उत्पन्न कारने वाले बिजलीपास आदि के द्वारा मन का प्रतिघात होता है और सुरा यादि के द्वारा अभिभव । तथा हस्ततल और वस्त्र आदि के द्वारा मुख हक लेने से प्राण और अपान का प्रतिघात होता है । किन्तु अमूर्त का मूर्त पदार्थ के द्वारा अभिघात प्रादि नहीं हो सकता, इससे प्रतीत होता है कि ये सब मूर्त हैं। तथा इसीसे आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है।'
इनके अतिरिक्त सुख, दु:ख, जीवन और मरण में भी पुद्गल के उपकार हैं। जब आत्मा से बद्ध साता वेदनीय कर्म द्रव्यादि बाह्य कारणों से परिपाक को प्राप्त होता है तब प्रात्मा को जो प्रीति या प्रसन्नता होती है, वह सुख है । इसी प्रकार असाता बेदनीय कर्मोदय से जो संक्लेशरूप परिणाम होते हैं, वह दुख है । भवस्थिति में कार ग्रायु कर्म के उदय से जीव के श्वासोच्छवास का चालु रहना, उसका उच्छेद न होना जीवित है और उच्छेद हो जाना मरगा है । साधारणतया मरण किसी को प्रिय नहीं है तो भी व्याधि, पीड़ा, शोकादि से व्याकुल प्राणी को मरण भी प्रिय होता है। अतः उसे उपकार श्रेणी में ले लिया है । यहाँ उपकार शब्द से इष्ट पदार्थ नहीं लिया गया है, किन्तु पुद्गलों के द्वारा होने वाले समस्त कार्य लिये गये हैं । दुःख भी अनिष्ट है विन्तु पुद्गल का प्रयोजन होने से उसका निर्देश किया गया है।
पुद्गलों का स्वोपग्रह भी है । जैसे कांसे को भस्म से नथा जल को कतक फल से साफ किया जाता है।
अधिभागी पुद्गल परमाणु के बन्ध का कथन गिद्धत्तं लुक्खत्तं बंधस्स य कारणं तु एयादी । संखेज्जासंखेज्जाणंतविहारिणद्धणुक्खगुणा ।।६०६॥ एगगुरणं तु जहरणं रिणवत्तं विगुगतिगुणसंखेज्जाs- । संखेज्जागतगुण होदि तहा रुक्खभावं च ॥६१०।। एवं गुरणसंजुत्ता परमाणू आदिवग्गणम्मि ठिया । जोग्गदुगाणं बंधे दोण्हं बंधो हने रिणयमा ।।६११।। गिद्धरिणद्धा ए बझंति रुपखरुक्खा य पोग्गला । गिद्धलुक्खा य बज्झति रूवारूवी य पोग्गला ।।६१२॥ रिद्धिदरोलीमझे विसरिसजादिस्स समगणं एक्कं । रूवित्ति होदि सपणा सेसारणं ता प्रवित्ति ॥६१३॥
१. सर्वार्थसिद्धि ५/१६ । २. “सुख दुःख जीवितमरणोपमहाश्च ।।५।२०।।" [तत्त्वार्थसूत्र]। ३. ४. राजनातिक ५/२०। ५. धवल पु. १४ पृ. ३१ गा. ३४ ।