Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६२२
सम्यक्त्वमार्ग/ ६८३
जीव के पुण्य और पाप ऐसे दो भेद
जीवदुगं उस जीवा पुष्णा हु सम्मगुणसहिदा । वदसहिदावि य पाया तब्बिवरीया हवंतित्ति ॥ ६२२ ॥
गाथार्थ - जीव दो प्रकार के हैं एक पुण्यजीव और दूसरा पापजीव । सम्यग्दर्शन सहित हो और व्रत सहित भी हो वह पुण्यजीव है और इससे विपरीत पापजीव होता है ।। ६२२ ।।
विशेषार्थ - यागे गाथा ६२३ में मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दष्टि जीवों की संख्या बतलाते हुए दोनों को पापी कहा गया है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि इन दोनों के विपरीताभिनिवेश है । वह किस प्रकार है, इसका विवेचन गाथा ६२३ की टीका में किया जायेगा । यहाँ पर तो यह बतलाया जा रहा है कि कौन जीत्र पुण्यात्मा है और कौन पापात्मा है ?
"सुह-प्रमुह-भावजुत्ता पुष्णं पावं हवंति खलु जीवा ।""
- शुभ तथा अशुभ परिणामों से युक्त जीव, पुण्य व पाप रूप होता है || १ ||
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी मूलाचार में कहा है
सम्मत्ते सुदेण य विरदीए कलाय - णिग्गहगुणेहि । जो परिणदो स पुण्णे तब्बिवरीदेण पात्रं तु २२५१४७२।
- जो जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, पंचमहाव्रत, कषायों का निग्रह इन गुणों से अर्थात् रत्नत्रय से परिणत है वह पुण्यजीव है और जो रत्नत्रय से परिणत नहीं है, वह पापजीव है ।
रत्नत्रय में भी मुख्यता चारित्र की है क्योंकि "चारितं खलु धम्मो "" चारित्र ही वास्तव में धर्म है और मोक्षफल चारित्र रूप धर्मवृक्ष पर लगता है, न कि जड़ पर ।
शंका- 'द्रव्यसंग्रह' में शुभ से युक्त जीव को पुण्य कहा है, वहाँ शुभ से क्या अभिप्राय है ?
समाधान- द्रव्यसंग्रह टीका में श्री ब्रह्मदेव सूरि ने शुभ के विषय में निम्नलिखित दो श्लोक उदवृत किये हैं
भावनमस्काररतो
ममियात्वविषं भावय दृष्टि च कुरु परां भक्तिम् । ज्ञाने युक्तो भव सदापि ॥१॥ कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् । तपः सिद्धिविध कुरूद्योगम् ॥२॥
पञ्च महाव्रतरक्षां दुर्दान्तेन्द्रियविजयं
- मिथ्यात्व रूपी विष का वमन करने वाला सम्यग्दर्शन की भावना करने वाला, उत्कृष्ट भक्ति करने और भाव- नमस्कार में तत्पर, सदा ज्ञान में लीन, पंच महाव्रतों का रक्षक, क्रोध यादि चार कषायों का निग्रह करने वाला, प्रबल इन्द्रियों का विजयी, तपसिद्धि तथा इससे विपरीत पापात्मा होता है ।
उद्योगी ऐसे शुभ से
परिणत जीव पुण्यजीव होता है
१. वृहद द्रव्यसग्रह गा. ३८
२. प्रचचनसार गाथा ।
३. बृहद् द्रव्यसंग्रह का ३० टीका ।