Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६८२/गो, सा, जीवकापर
गाथा ६२१
नव पदार्थ रणव य पदत्था जीवाजीश ताणं च पुण्णपायदुर्ग । पासवसंवरणिज्जरबंधा मोक्खो य होतित्ति ।।६२१॥
गाथार्थ-जीव और अजीव (पुद्गल) और उनके पुण्य व पाप ये दो तथा ग्रास्रव, संबर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ पदार्थ होते हैं ॥६२१।।
विशेषार्थ-मूल द्रव्य जीव और अजीव हैं। अजीव पाँच प्रकार का है पुदगल, धर्म, अधर्म, ग्राकाश और काल । इनमें से धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल ये चार द्रव्य तो अमूर्तिक हैं अत: ये बन्ध को प्राप्त नहीं होते ! पुदगल मुर्तिक है. स्निग्ध व मक्ष गुण के कारण बन्ध को प्राप्त होता है जैसा कि गाया ६०६ में कहा गया है। जीव स्वभाव से अमुर्तिक है किन्तु अनादि-कर्मबन्ध के कारण संसारी जीव मूर्तिक हो रहा है। अतः पुद्गल और संसारी जीव के परस्पर बन्ध के कारण प्रास्त्रब, संवर, निर्जरा, वन्ध और मोक्ष ये पांच अवस्थाएं होती हैं। साम्रव बंध ये दोनों पुण्य व पाप दो-दो रूप हैं। इस प्रकार जीव, अजीव, पासब, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये सात तत्त्व तथा इनमें पुण्य और पाप इन दो के मिलने से नत्र पदार्थ हो जाते हैं ।
_इन नव पदार्थों में से पुण्य, पाप, ग्रास्त्रब, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये जीव स्वरूप भी हैं और अजीव स्वरूप भी हैं। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इस गाथा की टीका में इसका कथन किया है---
जीवाजीवा भावा पुण्ण पावं च ग्रासवं तेसि ।
संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।।१०८॥ [पंचास्तिकाय] --जीव और अजीव दो मुल पदार्थ तथा उन दोनों के पुण्य, पाप, पासव, संवर, निर्जग, बन्ध और मोक्ष ये नत्र पदार्थ हैं। चैतन्य जिसका लक्षण है वह जीव पदार्थ है। चतन्य के अभाव लक्षण बाला अजीव है । ये दो मुल पदार्थ हैं । जीव और पुद्गल रूप अजोव इन दो के परस्पर वन्ध से अन्य सात पदार्थ होते हैं। जीव के शुभ परिणाम वह जीव पुण्य है । शुभ परिणामों के निमित से प्रगति कर्म परिणाम होता है, वह पुद्गल (अजीब) पुण्य है। जीब के अशुभ परिणाम वह जीवपाप है तथा उनके निमित्त से पुदगल का अप्रशस्त कर्म रूप परिणमन होना वह अजीव पाम है । जीव के मोह रागद्वेष रूप परिणाम जीव-मास्रव हैं। उनके निमित्त से योग द्वारा पाने वाली पौदगलिक कार्मरण वर्गणा वह अजीब प्रास्रब है । जीव के मोह रागद्वेष रूप परिणाम का निरोध वह जीवसंबर है। उसके निमित्त से साँग द्वारा प्रविष्ट होने वाली कार्मण बर्गणाओं का निरोध बह अजीवसंबर है। कर्म की शक्ति नष्ट करने में समर्थ ऐसा जीव का परिणाम सो जीवनिर्जरा है। उसके प्रभाव से पूद्गल कर्मों का नीरस होकर एकदेण संक्षय वह अजीव निर्जरा है। जीव के मोह-राग-द्वेष परिणाम वह जीवबन्ध है। उन परिणामों के निमित्त से कर्मों का जीव के साथ अन्योअन्य अवगाहन हो जाना अजीव बन्ध है। जीव की अत्यन्त शुद्धात्मोपलब्धि जीवमोक्ष है। पौद्गलिक सर्व कर्मों का जीव से अत्यन्त विश्लेग हो जाना यह अजीवमोक्ष है।
१. गा. जी. गा. ५६३। २. पंचास्तिकार गा. १०८ समयब्याख्या दीका ।