Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६७४ / गो मा जीव काष्ट
क्योंकि इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचन रूप से परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्य वचन भी पौद्गलिक हैं। दूसरे द्रव्य वचन श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है इससे भी ज्ञात होता है कि बनन पौद्गलिक है ।
शंका- बचन इतर (अन्य ) इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं है ?
समाधान- घ्राण इन्द्रिय गन्ध को ग्रहण करती है उससे रसादि की उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार इतर इन्द्रियों में बचन के ग्रहण करने की योग्यता नहीं है ।
शङ्का - वचन अमूर्त हैं ?
गाथा ६०५- ६०८
समाधान- नहीं, क्योंकि वचनों का मूर्त इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है, वे मूर्त भीत आदि के द्वारा रुक जाते हैं, प्रतिकूल वायु आदि के द्वारा उनका व्यापात देखा जाता है, तथा अन्य कारणों से उनका अभिभव देखा जाता है, इससे शब्द का मूर्तपना सिद्ध होता है ।
मन दो प्रकार का है द्रव्य मन और भाव मन । लब्धि और उपयोग लक्षण भाव मन पुद्गलों के आलम्बन से होता है इसलिए पौद्गलिक है। तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा गोशंग नामकर्म के निमित्त से जो पुद्गल गुणदोष का विचार और स्मरण आदि उपयोग के सम्मुख हुए आत्मा के उपकारक हैं, के हो मन रूप से परिणत होते हैं, अतः द्रव्य मन भी पौद्गलिक है ।
शंका - मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है । वह रूपादि परिणमन से रहित है और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौगलिक मानना प्रयुक्त है।
समाधान - इस प्रकार की शंका प्रयुक्त है। क्या वह मन आत्मा और इन्द्रियों से सम्बद्ध हैं या सम्बद्ध ? यदि श्रसम्बद्ध है तो वह आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेश में वह प्रणुमन सम्बद्ध है, उस प्रदेश को छोड़कर इतर प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता । ग्रतः यह सिद्ध होता है कि मन अणुमात्र नहीं है, बल्कि सर्व ग्रात्मप्रदेशों में व्याप्त होकर स्थित है।
शङ्का--अदृष्ट नाम का एक गुण है, उसके वश से यह मन प्रलातचक्र के समान सब प्रदेशों में घूमता रहता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि अदृष्ट नाम के गुण में इस प्रकार का सामर्थ्य नहीं पाया जाता । यतः अमूर्त और निष्क्रिय श्रात्मा का अष्ट गुगा है। अतः यह गुण भी निष्क्रिय है इसलिए अन्यत्र क्रिया का आरम्भ करने में असमर्थ है। देखा जाता है कि वायु नामक द्रव्यविशेष स्वयं क्रियावाला और स्पर्णवाला होकर ही वनस्पति में परिस्पन्द का कारण होता है परन्तु यह लक्षणवाला है, इसलिए यह क्रिया का हेतु नहीं हो सकता ।
उससे विपरीत
वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्म 'उदय की अपेक्षा रखनेवाला श्रात्मा कोष्टगत जिस वायु को बाहर निकालता है, उच्छ्वास लक्षरण उस वायु को प्राण