Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६.६-६१६
मम्बन्धमारणा/६७६
अनन्त स्निग्ध गुणबाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन स्निग्ध गुणवाले परमाणु का पात्र स्निग्ध गुणवाले परमाण के साथ बन्ध होता है। किन्तु आगे पीछे के शेष स्निग्ध गुणवाले परमाण के माथ बन्ध नहीं होता। चार स्निग्ध गुणवाले परमाणु का छह स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ बन्ध होता है, किन्तु आगे पीछे के शेष स्निग्ध गुणवाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार यह अम आगे भी जानना चाहिए। तथा दो रूक्ष गुगावाले परमाणु का एक, दो और तीन रक्ष गुणवाले परमाणु के साथ वन्ध नहीं होता । चार रुक्ष गुरगदाले परमाणु के साथ अवश्य बन्ध होता है। उसी दो रूक्ष गुणवाले परमाणु का आगे के पांच प्रादि रूक्ष गुणवाले परमाणों के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन आदि रूक्ष गुणवाले परमाणुओं का भी दो अधिक गुगावाले परमाणुओं के माथ बन्ध जानना चाहिए।'
शङ्का--स्निग्धगुण और रूक्षगुणवाले पुद्गलों का एक-दूसरे के साथ बन्ध होता है, इस नियम के अनुसार क्या सब पुद्गलों का बन्ध होता है ?
समाधान-जघन्य गुणवाले परमाणु का किसी भी पुदगल के साथ बन्ध नहीं होता। जघन्य गुणवाले स्निग्ध और जघन्य गुणवाले रूक्ष पुद्गलों का न तो स्वस्थान की अपेक्षा बन्ध होता है और न परस्थान की अपेक्षाही धध होता है। अन्य मुल के अतिरिक्त अन्य गुणवाले स्निग्ध पुद्गलों का रूक्ष गृणवाले पुद्गल के साथ और रुक्ष पुद्गल का स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होता है।
सर्वार्थसिद्धि व राजबातिक अ. ५ सू. ३६ की टीका में यह गाथा ६१५ उद्धृत है, किन्तु वहाँ पर यह अर्थ किया गया है कि स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होने में भी दो अधिक गुण का नियम लागू होता है ।
इस प्रकार एक ही गाथा के श्री पूज्यपाद आदि प्राचार्यों ने तथा श्री वीरसेन प्राचार्य ने भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं । इन दोनों में से कौन सा अर्थ ठीक है ? वर्तमान में इसका निर्णय न हो सकाने के कारण दोनों अर्थों को लिख दिया गया है ।
(१)
क्रपाक
गुणांश ।
सशबन्ध
विसदृश बन्ध
नहीं
जघन्य जघन्य
नहीं जघन्य + एकादि अधिक
नहीं जघन्येतर + समजघन्येतर नहीं जघन्येतर + एकाधिकज यन्येतर नहीं जघन्येतर --द्वयधिकजघन्येतर है जघन्येतर - व्यादि अधिकजघन्येतर नहीं
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१. मधिसिद्धि ५/३६ । २. धवल पु. १४ पृ. ३३ ।