Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६७२ / गो. सा जीवकाण्ड
गाथा ६०५-६०८
है || ६०७ || भाषावर्गणा से वचन व मनोवगंगा से द्रव्य मन की रचना होती है और कार्मण वर्गरगाओं से आठ प्रकार के कर्म बँधते हैं, इस प्रकार जिन ( श्रुतकेबली) के द्वारा कहा गया है।
।।६०६ ।।
विशेषार्थ - गाथा ५६७ व ५६८ में व उनके विशेषार्थ में धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य व काल द्रव्य के गति आदि उपकार का कथन सविस्तार किया जा चुका है।
स्वामी और सेवक तथा आचार्य और शिष्य इत्यादि रूप से वर्तन करना परस्परोपग्रह है । स्वामी तो धन आदि देकर सेवक का उपकार करता है और सेवक हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके स्वामी का उपकार करता है। प्राचार्य दोनों लोकों में सुखदायी उपदेश द्वारा तथा उस उपदेश अनुसार क्रिया में लगाकर शिष्यों का कारक भी आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति करके आचार्य का उपकार करते हैं।' अथवा गुरु की सेवा शुश्रूषा पादमंदन आदि करके शिष्य भी गुरु का उपकार करते हैं। इसी प्रकार पिता-पुत्र, पति-पत्नी, मिश्र-मित्र परस्पर में उपकार करते हैं ।
पुद्गल भी जीव का उपकार करता है। कहा भी है- 'शरोर-वाड, मनः - प्राणापाना: पुद्गलानाम् ||५ / १६३
जीवस्स बहु-पयारं उबधारं कुराबि पुग्गलं दव्वं ।
देहं च इंवियाणि य वारणी उस्सास - णिस्सासं ॥ २०८ ॥
[स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ]
- शरीर, वचन, मन और प्राणापान (उच्छवास ) यह पुद्गलों का उपकार है। पुद्गलद्रव्य जोव का बहुत तरह से उपकार करता है, शरीर बनाता है, इन्द्रिय बनाता है, वचन बनाता है और श्वासोच्छ्वास बनाता है ।
गा. ५६४- ५६५ के विशेषार्थ में पुद्गल की २३ वर्गणाओं के कथन में यह बतलाया जा चुका है कि प्रहार वर्गणात्रों से औदारिक, वैक्रियिक व आहारक इन तीन शरीरों की रचना होती है। तेजस वर्गणा से तेजस शरीर की भाषा वर्गणा से वचन की, मनोवगंणा से मन की और कर्मवणाओं से आठ प्रकार के कर्मों की प्रथवा कार्मण शरीर की निष्पत्ति होती है। ये पाँच वर्गगाएँ ही ग्राह्य वर्गणाएँ हैं और शेष या वर्गणा हैं, क्योंकि वे जीव के द्वारा ग्रहण के अयोग्य हैं ।
जिस वर्ग के पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण कर तीन शरीरों की निष्पत्ति होती है वह माहार चणा है । अर्थात् श्रदारिक शरीर वैक्रियिक शरीर और प्राहारक शरीर के जिन द्रव्यों को ग्रहण कर श्रदारिक, वैक्रियिक और श्राहारक शरीर रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की आहार द्रव्यवर्गणा संज्ञा है। आहार शरीर वर्गरगा के भीतर कुछ वर्गणाएँ प्रदारिक शरीर के योग्य हैं, कुछ वर्गणाएँ वैक्रियिक शरीर के योग्य हैं और कुछ वर्गणाएँ आहारक शरीर के योग्य हैं । इस प्रकार आहार बर्गेणा तीन प्रकार की है ।
१. सर्वार्थसिद्धि ५/२० । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१० की टीका । ३. तत्त्वार्थमुत्र । ४. धवल पु. १४
पृ. ५४६-५४७ ।