Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६५८/गो. सा.जीवकाण्ड
गाथा ५६२
समाधान–परोतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात के जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदों में से यहाँ पर मध्यम प्रसंख्यातासंख्यात ग्रहण करना चाहिए।
जिस प्रकार अनन्त को अनन्त रूप से जानने में सर्वज्ञत्व की हानि नहीं होती, उसी प्रकार असंख्यात को असंन्यात रूप से जानने में सर्वज्ञत्व की हानि नहीं होती। सर्वज्ञ अर्थ को (ज्ञेय को) अन्यथा नहीं जानते क्योंकि वे यथार्थ ज्ञाता हैं।'
धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और जीव व पुद्गल इन पांच द्रव्यों के बहुप्रदेशी हो जाने पर उनमें किस द्रव्य के प्रदेश चल और किसके अचल हैं, इस बात को दो गाथाओं द्वारा बतलाते हैं
सम्बमरूबी दवं अवट्टिदं प्रचलिया पवेसा वि । रूवी जीया चलिया तिषियप्पा होति हु पदेसा ॥५६२॥
गाथा-- अल्पी डेज्य अबस्थित हैं और उनके प्रदेश नी अचलायमान हैं। रूपी जीवद्रव्य चल है और इसके प्रदेश (चल की अपेक्षा) तीन प्रकार के होते हैं ।। ५६२।।
विशेषार्थ- संसारी जीव रूपी है और मुक्त (सिद्ध )जीब अस्पी है (गा. ५६३) । पुद्गल द्रव्य रूपी है। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश और काल द्रध्य ये चार अरूपी हैं (गा. ५६४) । जो अपी द्रव्य हैं अर्थात् मुक्त जीव, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य ये अवस्थित हैं अर्थात जहाँ पर स्थित हैं वहाँ पर ही सदा स्थित रहते हैं, अन्यत्र नहीं जाते और न अपना स्थान बदलते हैं। इन अवस्थित द्रव्यों के प्रदेश भी चन्नायमान नहीं होते अर्थात् क्षेत्र से क्षेत्रान्तर नहीं होते, सदा अचल रहते हैं।
___ रूपी जीव अर्थात् संमारी जीव के प्रदेशों की नीन अवस्थाएँ होती हैं। पाठ मध्य प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य सर्वप्रदेश चलित होते हैं या वे सर्वप्रदेश प्रचलित होते हैं या उनमें से कुछ चलित होते हैं और कुछ प्रचलित होते हैं । इस प्रकार संसारी जीवप्रदेशों की १. चल, २. अचल, ३. चलाचल ये तीन अवस्थाएँ होती हैं । चल या प्रस्थिति; अचल या स्थिति ये दो-दो शब्द एक अर्थवाची हैं। भवान्तर में गमन के समय, सुख-दुःख का तीव्र अनुभव करते समय या तीव्र क्रोधादि रूप परिणाम होते समय जीव-प्रदेशों में उथल-पुथल होती है, वह ही अस्थिति है । उथल-पुथल का न होना स्थिति है । जीवप्रदेशों में से पाठ मध्य के प्रदेश सदा निरपवाद रूप से सब जीवों में स्थित ही रहते हैं। प्रयोगकैबली और सिद्धों के सभी प्रदेश अचल (स्थित) हैं । व्यायाम, दुःस्त्र, परिताप आदि के काल में उक्त पाठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष प्रदेण अस्थित (चल) ही होते हैं। मेष प्राग्गियों के प्रदेश स्थित भी हैं और अस्थित भी अर्थात् चन्नाचल (चन-अचल) हैं।
राग, द्वप और कपाय से अथवा वेदनाओं से, भय से अथवा मार्ग से उत्पन्न परिश्रमसे मेघों में स्थित जल के समान जीव प्रदेशों का संत्रार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है।
१. रा. वा. ५/८/२।
२. रा. वा. ५/८/१६ ।