Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५६२
सम्यक्त्वमार्गणा/६५६
शङ्गा-जीव के पाठ मध्य प्रदेशों का सङ्कोच व विस्तार नहीं होता, अत: उनमें स्थित कर्मप्रदेशों का भी अस्थितपना नहीं बनता । इसलिए सर्व जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह घटित नहीं होता ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के उन पाट मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशों का पाश्रय करके यह घटित हो जाता है।'
___ वेदना एवं भय आदिक क्लेशों से रहित छनस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित होते हैं । तथा उसी छमस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशों का संचार पाया जाता है, उनमें स्थित कर्म प्रदेश भी संचार को प्राप्त होते हैं इसलिए वे अस्थित हैं । उन दोनों के समुदाय स्वरूप जीव एक है अतः वह स्थित-अस्थित इन दोनों स्वभाव वाला है।
प्रयोग केवली जिन में ममस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीवप्रदेशों का संकोच ब विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं।'
शंका-मब जीवों के अाठ मध्य प्रदेश सर्वदा स्थिर ही क्यों रहते है ?
समाधान--जीव के पाठ मध्य प्रदेशों को परस्पर प्रदेश-बंध अनादि है। ऐसा नहीं है कि उन पा प्रदेशों में से कोई प्रदेश अध्यन बना जाय और उसके स्थान पर दुसरा प्रदेश आ जाय । अनादि काल से उन्हीं आठ मध्यप्रदेशों का परस्पर प्रदेशबन्ध चला रहा है और अनन्तकाल तक चला जाएगा अतः वे पाठ मध्य के प्रदेश सदा स्थिर रहते हैं।
शङ्का-मरण सभय दूसरे शरीर को धारण करने के काल में जीव पूर्व स्थान को छोड़कर अन्य स्थान में जन्म लेता है तब तो ये पाठ मध्य के प्रदेश अस्थित होते होंगे ?
समाधान नहीं, क्योंकि विग्रह गति में अर्थात् भवान्त रगमन-काल में प्राट मध्य प्रदेश स्थित ही रहते हैं। अन्य सर्वप्रदेश अस्थित रहते हैं।
शङ्का-द्रव्येन्द्रिय-प्रमाण जीबप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों न मान लिया जाय ?
समाधान · नहीं. यदि द्रव्येन्द्रिय-प्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जाए, तो अत्यन्त द्रतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को भ्रमण करती हुई पृथिवी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए प्रात्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रिय प्रमाण आत्मप्रदेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिए । बच्चे जब तेजी से चक्कर खाते हैं और थक कर बैठ जाते हैं तो उनको पृथिवी
आदि सब वस्तुएं घूमती हुई (चक्कर रूप भ्रमण करती हुई) दिखाई पड़ती हैं। इस परिश्रम से उनकी चक्षु के अन्तरंग-निर्वृत्ति का प्रात्मप्रदेश इतनी तेजी से भ्रमण करते हैं। प्रथम समय में जो प्रात्मप्रदेश
१. धवल पु. १२ पृ. ३६५-३६६ । २. धवल पु. १२ पृ. २६६ । ३. धवल पृ. १२ पृ. २६७ । ४. "जो प्रणादिय सरीरबंधोगाम यथा अट्टरगं जीवमझपदेसाणं अग्णेण्णपदेसंबंधो भवदि" ।।६।। [धवल पु. १४ पृ. ४६] । ५. धवल पु. १.२३४ ।