Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५८-५६१
सम्यक्त्वमार्गगा। : ६५७
निष्क्रिय हैं।' अर्थात प्रदेश से प्रदेशान्तर नहीं होते । ये कालाणु रूपादि गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त हैं ।
परिकर्म में लिखा है कि सर्वजीवराशि का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोक प्रसारण वर्ग-स्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है अर्थात् पुद्गलपरमाणुओं की संख्या प्राप्त होती है। पुनः सब पुद्गल द्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक वर्गस्थान आगे जाकर सब काल प्राप्त होता है अर्थात् व्यवहार काल के सर्व समयों की संख्या प्राप्त होती है । पुनः काल समयों का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक मात्र वर्ग स्थान जाकर सब आकाशश्रेणी प्राप्त होती है अर्थात् आकाशश्रेणी के प्रदेश प्राप्त होते हैं। इससे जाना जाता है कि जीव अनन्त हैं, उनसे अनन्तगुणा सब पूदगल द्रव्य हैं, उससे भी अनन्तगुणा व्यवहार काल है अर्थात व्यवहार काल के समयों का प्रमाण है। व्यवहार काल से भी अनन्तगुणी प्राकाश के प्रदेशों की संख्या है। गुणकार का प्रमाण अनन्तलोक मात्र वर्गस्थान है ।
धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एमीद हो देश भारतुल्य होते हुए भी असंख्यात हैं। एक जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं ।५ गिनती न हो सकने के काररग ये प्रदेश असंन्यात हैं अर्थात् गिनती की सीमा को पार कर गये हैं। एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्र में ठहरता है वह प्रदेश है। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोक को व्याप्त करके स्थित हैं इसलिए ये निष्क्रिय हैं। लोकपुरण केवली समुद्घात अवस्था के समय जीव के मध्यवर्ती ग्राउ प्रदेश समेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथ्वी के और बच पटल के मध्य के पाठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं, बाकी जीव-प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर सम्पुर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं। एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है, वह घट की तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है तथापि उसमें प्रदेश वास्तविक है, उपचार से नहीं । घट के द्वारा जो प्राकाश का क्षेत्र प्रवगाहित किया जाता है वही अन्य पटादिक के द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं । पटना नगर आकाश के दूसरे प्रदेश में है और मथुरा अन्य प्रदेश में । यदि प्रकाश अप्रदेशी होता तो पटना और मथुरा एक ही जगह हो जाते ।
शंका--धर्मादि द्रव्यों में प्रदेशत्व का व्यवहार पुद्गल परमाणु के द्वारा रोके गये प्राकाशप्रदेश के नाप से होता है । अतः मानना चाहिए कि उनमें मुख्य प्रदेश नहीं हैं ?
समाधान-धर्मादि द्रध्य अतीन्द्रिय हैं, परोक्ष हैं, अत: उनमें मुग्य रूप से प्रदेश विद्यमान रहने पर भी स्वतः उनका ज्ञान नहीं हो पाता। इसलिए परमाणु के माप से उनका व्यवहार किया जाता है ।
शंका-असंख्यात के नौ भेद हैं उनमें से किस प्रसंख्यात वो ग्रहण करना चाहिए ?
१. "कालारणवो निष्क्रिया:" [सर्वार्थसिद्धि ५/३६] । २. "रूपादिगुणाविर हादमूर्ताः ।" [ सर्वार्थसिद्धि ५/३६] । ३. धवल पु. १३ पृ. २६२-२६३ "धर्माधर्मकजीवास्तुल्यासंख्येस प्रदेशाः"| स. सि. ५/८) । ४. "प्रसंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मक जीवानाम् । ।।५/८||"[न.सू.]। ५. "लोकाकाशतुल्यप्रदेणाः ।" [रा. वा. ५/१६/१]। ६. रा. वा.