Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५८३-५८७
सम्वन्धमार्गगगा/१५५
__ -यह लोक सब ओर से अथवा सव जगह सूक्ष्म व बादर तथा अप्रायोग्य व योग्य (कर्मवर्गगा रूप होने अयोग्य व योग्य) पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है।
सत्यो लोयायासो पुगल-दन्वेहि सववो भरिदो।
सुहमे हि बायरेहि य णाणा-विह-सत्ति-जुत्तेहि ॥२०६॥ [स्वा.का.अ.] .-नाना प्रकार की शक्तियुक्त सूक्ष्म व बादर पूदगल द्रव्य से यह सम्पूर्ण लोकाकाश पूर्णरूप से भरा हया है 1 जगश्रेणी के घन रूप इस सर्व लोकाकाश में सूक्ष्म व बादर रूप पूदगल द्रव्य व्याप्त है। सर्वोत्कृष्ट महास्कन्ध रूप पुद्गल तमाम अर्थात् समस्त लोक में व्याप्त हो रहा है।' पुद्गल द्रव्य का ऐसा एक महास्वाध है जो सर्व लोक में व्याप्त हो रहा है।
बन्ध के कारणभूत स्निग्धत्व और रूक्षत्व* इन दोनों गुणों का कालद्रव्य में प्रभाव है इसलिए कालाणुओं का परस्पर बन्ध नहीं होता प्रतः प्रत्येक कालाणु पृथक्-पृथक् है। निश्चय काल रूप वे कालाणु एक-एक प्राका शप्रदेश पर एक-एक पृथक्-पृथक् स्थित हैं। ग्राकाशद्रव्य दो भागों में विभक्त है लोकाकाश और अलोकाकाश ।' कहा भी है - "तं ग्रायासं दुविहं लोयालोयाण भेएण ॥" २१३ उत्तरार्ध ।।
[स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा] __जितने प्रकाश में धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, काल द्रव्य, पुद्गल और जीब द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है। जहां पर जीवादि पदार्थ दिखाई देते हैं. वह लोकाकाश है और उससे वाहर अनन्त प्रदेशी अलोकाकाश है।४
"लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यन्न स लोकः, तस्मादबहि तमनन्तशुद्धाकाशमलोकः।"५
--जहाँ जीवादि पदार्थ दिखलाई पड़ें मो लोक है, इस लोक के बाहर अनन्त शुद्ध प्राकाश है सो अलोक है।
शंका-शुद्ध आकाश से क्या प्रयोजन है ?
समाधान--जहाँ पर आकाश द्रव्य के अतिरिक्त धर्मादि अन्य द्रव्य नहीं पाये जाते अर्थात् जिस आकाश में जीव, पुद्गल, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और काल ये पांच द्रव्य नहीं पाये जाते या जो आकाश इन पाँच द्रव्यों से रहित है, शुन्य है वह शुद्ध अाकाश है ।
अाकाश द्रव्य अन्य द्रव्य के साथ बन्ध को प्राप्त न होने से अशुद्ध नहीं होता तथापि अन्य द्रव्यों के साथ एकक्षेत्रावगाह नहीं होने की अपेक्षा शृद्ध अाकाश कहा गया है। जिसमें आकाश द्रव्य के सिवाय अन्य द्रव्य न पाये जाये वह शुद्धमाकाश अर्थात अलोकाकाश है।
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१. "जगद्यापिनि महास्कन्धे सर्वोत्कृष्टमिति ।" [स्वा. का, अ. भा. २०६ की टीका] । २. "स्निग्धरूक्षत्वात् बन्धः ।।" ५/३३।। [त. सू.] । ३. "प्राकाशं द्विधा विमत लोकाकाशमलोपाकाशं !" [सर्वार्थसिद्धि ५/१२] ४. स्वा. का, य. गा. २१३ की टीका, वृ. द्र. सं. गा. २० की टीका। ५.१वास्तिकाय मा. ३ तात्पर्यवसि टीका ।