Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६५४/गो, सा, जीवकाएर
माथा ५८३-५८७
अरणोष्णं पविसंता दिता प्रोगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता विय णिचं समं सभाव रण विजहंति ॥७॥ [पंचास्तिकाय] छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, अन्योन्य को अवकाशा देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते । अर्थात् ये छह द्रव्य परस्पर अवकाश देते हुए अपने-अपने ठहरने के काल पर्यन्त ठहरते हैं, परन्तु उनमें संकर-व्यतिकर दोष नहीं पाता। 'प्रवेश' शब्द क्रियावान जीव व पुद्गलों की अपेक्षा है, क्योंकि आये हुओं को अवकाश दिया जाता है । धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्रकाश और काल नि:क्रिय द्रव्य नित्य सर्व काल मिल के रहते हैं, अतः अवकाश शब्द इन चार की अपेक्षा से है।
पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्प से होता है ।।५/१४।।२ अाकाश के एक प्रदेश में एक परमाणु का अवगाह है। बन्ध को प्राप्त हुए या खुले हुए दो परमाणुओं का आकाश के एक प्रदेश में या दो प्रदेशों में अबगाह है। बन्ध को प्राप्त हुए या न प्राप्त हुए तीन परमारग प्रों वा आकाश के एक या दो या तीन प्रदेशों में अबगाह है। इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश वाले स्कन्धों का लोकाकाश के एक, संख्यात और असंख्यात प्रदेशों में अवगाह जानना चाहिए।
शंका -यह ता युक्त है कि धर्म और अधर्म अमूतं हैं, इसलिए उनका एक जगह बिना विरोध के रहना बन जाता है, किन्तु पुद्गल मूर्त है, इसलिए उनका बिना विरोध के एक स्थान पर रहना कैसे बन सकता है ?
समाधान-इनका अवगाहन स्वभाब है और सुक्ष्म रूप से परिणमन हो जाने से मुर्तिमान पुद्गलों का एक जगह अबगाह विरोध को प्राप्त नहीं होता, जैसे एक ही स्थान में अनेक दीपकों का प्रकाण रह जाता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है
प्रोमाढगाढरिणथियो पोग्गलकायेहि सव्वदो लोगो। सुमेहि बावरेहि य पंताणतेहिं विविहिं ॥६४॥ [पंचास्तिकाय]
---यह लोक सर्व ओर से सूक्ष्म व बादर नाना प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गलों के स्कन्धों से पूर्ण रूप से भरा हुआ है। जैसे कज्जल से पूर्ण भरी हुई कज्जलदानी अथवा पृथ्वीकाय आदि पात्र प्रकार के सूक्ष्म स्थावर जीवों से बिना अन्तर के भरा हुमा यह लोक है, उसी प्रकार यह लोक अपने सर्व असंख्यात प्रदेशों में दृष्टिगोचर व अदृष्टिगोचर नाना प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धों से भरा हुआ है।
प्रोगाङगाढरिणचिदो पोग्गलकाएहि सम्बदो लोगो। सुहुमेहिं वादरेहि य अप्पाउग्गेहि जोग्गेहिं ॥७६॥[प्रवचनसार]
१. पंचास्तिकाय गा. ७ तात्पर्य वृति टीका। २. "एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ।।५/१४॥" (तत्त्वार्थ सूत्र]। ३. सर्वार्थ सिद्धि ५/१५ । ४. पंचास्तिकाय मा. ६४ तात्पगंवृत्ति टीका ।