Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६५२/ गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ५५३-५८७
लोगागासपदेसा छद्दचेहि फुडा सदा होंति । सच्चमलोगागासं श्रण्णेहिं विवज्जियं होदि ॥१५८७ ।।
पालाका के अतिकष सर्व मध्य लोक (लोकाकाश) में ही हैं, लोकाकाश से बाहर नहीं हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। ये दोनों द्रव्य अवस्थित हैं, प्रचलित हैं और नित्य है ।। ५६३ ।। आत्मप्रदेशों के संकोच विकोच के कारण एक जीव लोक के असंख्यातवें भाग को यदि करके ( केवलीसमुद्घात की अपेक्षा ) सर्व लोक में व्याप्त है || ५८४॥ पुद्गल द्रव्य प्रकाश के एक प्रदेश से लेकर समस्त लोक में विद्यमान है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक काला स्थित है ।। ५६५ ॥ संख्यात, असंख्यात व अनन्त मुद्गलप्रदेश वाले स्कन्ध हैं, किन्तु पुद्गल परमाणु आकाश के एक प्रदेश को ही व्याप्त कर रहता है ।। ५८६ ।। लोकाकाश के समस्त प्रदेशों पर छहीं द्रव्य स्थित हैं। समस्त अन्नोकाकाश श्राकाशद्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों से रहित है, शून्य है ॥५८॥
विशेषार्थ - धर्मादिक द्रव्यों का लोकका में अवगाह है, बाहर नहीं है ।
शंका- यदि धर्मादिक द्रव्यों का ग्राधार लोकाकाश है तो आकाश का क्या आधार है ?
समाधान - प्रकाश का अन्य आधार नहीं है, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठ है।
शंका- यदि श्राकाश स्वप्रतिष्ठ है तो धर्मादिक द्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ ही होने चाहिए। यदि धर्मादि द्रव्य का अन्य आधार माना जाता है तो आकाश का भी अन्य आधार मानना चाहिए । ऐसा मानने पर मनवस्था दोष प्राप्त होता है ।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, है, जहाँ प्रकाश स्थित है यह कहा जाय अधिकरण है, यह व्यवहारतय की अपेक्षा स्वप्रतिष्ठ ही हैं।
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क्योंकि श्राकाश से अधिक परिमाण वाला ग्रन्य द्रव्य नहीं वह सबसे अनन्त है । परन्तु धर्मादिक द्रव्यों का प्रकाश कहा जाता है। एवंभूतनय की अपेक्षा तो सब द्रव्य
शंका लोक (संसार) में जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हीं का आधार-आधेयभाव होता है, जैसे कि बेरों का प्राधार कुण्ड है । ग्रकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्य बाद में उत्पन्न हुए हों, ऐसा तो है नहीं अतः व्यवहारनय की अपेक्षा भी साधारन्याधेय कल्पना नहीं बनती ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक साथ होने वाले पदार्थों में आधार-आधेय भाव देखा जाता है । जैसे घट में रूपादिक का और शरीर में हाथ यादि का
लोक प्रलोक का विभाग धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और सद्भाव को अपेक्षा जानना चाहिए। प्रर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है। यदि धर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाय तो जीव और पुद्गलों की गति के नियम का हेतु न रहने से लोक अलोक का विभाग नहीं बनता ।"
१. सर्वार्थसिद्धि ५ / १२ /