Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६५०/गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ५८१-५८२
श्यों की स्थिति छदवावद्वारणं सरिसं तियकालअस्थपज्जाये । वेंजणपज्जाये वा मिलिदे ताणं ठिवित्तादो ॥५८१॥' एयदवियम्मि जे प्रस्थपज्जया वियपस्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हदि दध्वं ॥५८२॥
गाथार्थ-छहों द्रव्यों का अवस्थान ( स्थिति)समान है, क्योंकि तीनों कालों की अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायों को मिला कर उनकी स्थिति होती है ।।५८१॥ एक द्रव्य में जितनी भूत व भविष्यत् और वर्तमान अर्थ व व्यंजन पर्याय हैं, तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है ।। ५.८२।।
विशेषार्थ-छहों द्रव्यों का अवस्थान (स्थिति) समान होती है, क्योंकि छहों द्रव्य अनादि अनन्त हैं। अथवा भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में जितनी अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय होती हैं उतनी द्रव्यों की स्थिति होती है। इसी के समर्थन में गाथा ५८२ कही गई है।
शा-अर्थपर्याय किसे कहते हैं ?
समाधान--जो पर्याय अत्यन्त सूक्ष्म क्षमा-क्षण में होकर नष्ट होने वाली होती हैं और वचन के अगोचर होती है, वह अर्थ पर्याय है।
शाङ्का-व्यंजनपर्याप्र का क्या लक्षण है ?
समाधान--व्यंजन पर्याय स्थूल होती है, देरतक रहनेवाली, वचनगोचर तथा अल्पज्ञ के रष्टिगोचर भी होती है ।
शङ्का-पर्याय के अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय ऐसे दो भेद क्यों किये गये ?
समाधान - अर्थपर्याय मात्र एक समय रहने वाली है तथा व्यंजन पर्याय चिरकाल रहने वाली है। इस कालकृत भेद को बतलाने के लिए व्यंजनपर्याय व अर्थपर्याय ये दो भेद किये गये हैं।
सुहमा अवायविसया खरखइणो प्रत्थपज्जया दिवा । वंजणपज्जाय पुरण थूला गिरगोयरा चिरविवस्था ॥२५॥
[वसुनन्वि श्रावकाचार]
१. स्वा. का. अ. गा. २२० टीका। २. धवल पु. १ पृ. ३८६, पु. ३ पृ. ६ । ३. "तत्रार्थपर्याया सूक्ष्माः अगाक्षयिणस्तथावाग्गोचरा विषया भवन्ति ।" पं. का मा. १६ तात्पर्य वृत्ति टीका1४. "न्यजनसमाः पुनः स्थुलात्तिरकालस्थायिनो वाग्गोचराएछस्थ रस्टिविषयाश्च भवन्ति ।". पं. का. गा. १६ तात्पर्यवसि टीका] । ५. "एकसमयतिनोऽर्थपर्याया भयंते चिरकालस्थापिनो व्यंजनपर्याया मण्यते इति काल कृतभेदकापनार्थ ।" [पं. का, गा. १६ टीका] 1