Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५८३-५६५
सम्यक्रमागंगा/६५१
-अर्थपर्याय सूक्ष्म है, ज्ञान का विषय है, शब्दों से नहीं कही जा सकती और क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली है, किन्तु व्यंजन पर्याय स्थूल है, शब्द-गोचर है और चिरस्थायी है ।
मूर्ती व्यंजनपर्यायो वारगम्योऽनश्वरः स्थिरः ।
सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंजिकः ॥६:४५।। [ज्ञानार्णव] -- व्यंजन मूर्तिक है, वन्ननगोचर है, अनश्वर है, स्थिर है । अर्थपर्याय सूक्ष्म और प्रतिक्षणध्वंसी (नष्ट होने वाली) है। व्यंजनपर्याय पुद्गल के अतिरिक्त समारी जीव में होती है । संसारी जीव अनादि कर्मबन्धनबद्ध होने से मूतिक है। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें तो अर्थपर्याय ही होती है। जीव ब पुद्गल में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्याय होती हैं ।' सिद्ध जीव भी शुद्ध वृदय है, अतः सिद्धजीवों में भी अर्थ पर्याय ही होती है ।
द्रवार दि ग्रनना है और वही संतति से अनादि अनन्त हैं अत: एक द्रव्य में जितनी पर्याय हैं उतना मात्र ही द्रव्या है, क्योंकि द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होती और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता । जितनी पर्याय होकर नष्ट हो चुकीं वे तो भूत पर्याय हैं और जो पर्यायें अविद्यमान हैं, पागामी निमित्त व उपादान कारणों के अनुसार होगी वे भविष्यत् पर्याय हैं और जो वर्तमान में हो रही हैं बह वर्तमान पर्याय है। इन तीनों पर्यायों का जितना काल है उतना ही द्रव्य का काल है अर्थात् उतनी ही द्रव्य की स्थिति है जो अनादि अनन्त रूप है।
अनादि को अनादिम्प से अनन्त को अनन्तरूप से, अविद्यमान को अविद्यमानरूप से, असत् को असतरूप से और प्रभाव को प्रभावरूप से जानना ही सम्यग्ज्ञान है, अन्यथा जानना मिथ्याज्ञान है। जितनी द्रव्य की स्थिति है उतनी पर्याय हैं । द्रव्य की स्थिति अनादि छनात है, प्रवाह, रूप या सन्तति रूप से पर्यायों की स्थिति भी अनादि अनन्त है।
____ द्रव्यों का प्राघार अथवा क्षेत्र प्रागास वज्जित्ता सब्चे लोगम्मि चेव पत्थि वहि । वावी धम्माधम्मा प्रयट्ठिवा अचलिदा पिच्चा- ।।५८३॥ लोगस्स असंखेज्जविभागप्पदि तु सम्वलोगोत्तिः । अप्पपवेसविसप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥५८४।। पोग्गलबब्बाणं पुरण एयपदेसादि होंति भजणिज्जा । एक्केको दु पदेसे कालाणूणं धुवो होदि ।।५८५॥ • संखेज्जासंखेज्जाणता वा होति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी एगपदेसो अणुस्स हवे ॥५८६।।
१. "धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचरा: 1 व्यंजनार्थस्य विज्ञेयो द्वावन्यौ जीवपूदगलो।" स्वा. का. अ. गा. २२० टीवा] । २. पचास्तिकाय गा. १२ ।