Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५५३-५८७
सम्यक्त्यमागंणा/६५३
धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का प्रवगाह समग्र लोकाकाश में है ।।१३।। -- घर में जिस प्रकार घट अवस्थित रहता है उस प्रकार लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य का अमाह की है, मित, 'जग प्रकार लिस में तैन रहता है, उस प्रकार पूरे लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह है । यद्यपि ये सब द्रव्य एक जगह रहते हैं तो भी अवगाहन शक्ति के निमित्त से इनके प्रदेश प्रविष्ट होकर व्याधात को नहीं प्राप्त होते ।
लोकाकाण के असंख्यात भाग करके जो एक भाग प्राप्त हो, वह असंख्यातवां भाग कहलाता है। एक असंख्यातवाँ भाग जिनके श्रादि में है वे सत्र असंख्यात भाग आदि हैं। एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है। इस प्रकार एक, दो, तीन और चार प्रादि संख्यात व असंख्यात भागों से लेकर सम्पूर्ण दोक पर्यन्म एक जीव का अवगाह जानना चाहिए। किन्तु नाना जीवों का अवगाह सब लोक
शंका-यदि लोक के एक असंख्यातवें भाग में एक जीब रहता है तो अनन्तानन्न सशरीर जीवराणि लोकाकाश में कैसे रह सकती है ?
समाधान-जीव दो प्रकार के हैं सूक्ष्म और बादर, अत: उनका लोकाकाश में अवस्थान बन जाता है । जो बादर जीव हैं उनका शरीर तो प्रतिधात सहित होता है। किन्तु जो सूक्ष्म हैं वे यद्यपि मशरीर हैं तो भी सूक्ष्म होने के कारण एक निगोद जीब ग्राकाश के जितने प्रदेशों का अवगाहन करता है उतने में साधारण शरीरवाले अनन्तानन्त जीव रह जाते हैं । ये परस्पर में और बादरों के साथ व्याधात को नहीं प्राप्त होते, इसलिए लोकाकाश में अनन्तानन्त जीवों के अवगाह में कोई विरोध नहीं आता।
शङ्का-एक जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर असंख्यात हैं तो लोफ के अगम्यान भाग ग्रादि में एक जीव कैसे रह सकता है. उसको तो समस्त लोक व्याप्त कर रहना चाहिए?
समाधान-यद्यपि प्रान्मा अमूर्त स्वभावी है तथापि अनादिकालीन बन्ध के कारण एकपने को प्राप्त होने से वह मूर्त हो रहा है और कार्मरण शरीर के कारण वह बड़े शरीर में रहता है। इस लिए उसके प्रदेशों का संकोच व विस्तार होता है । दीपक के समान शरीर के अनुसार उसका लोक के असंख्यातवें भाग प्रादि में रहना बन जाता है। जिस प्रकार निराकरण आकाशप्रदेश में यद्यपि दीपक के प्रकाश के परिमाण का निश्चय नहीं होता तथापि वह सकोरा, ढकन तथा प्रावरण करने वाले दूसरे पदार्थों के पावरण के वश से नत्परिमाण होता है, उसी प्रकार प्रकृन (जीब के विषय) में जानना चाहिए।
शंका-धर्मादि द्रव्यों के प्रदेशों का परस्पर प्रवेश होने के कारण संकर होने से अभेद प्राप्त होता है।
___ समाधान नहीं, क्योंकि परस्पर अत्यन्त सम्बन्ध हो जाने पर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, इसलिए उनमें अभेद नहीं प्राप्त होता । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है -.
१. “धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ।।५/१३॥'' [सर्वार्थसिद्धि] । २. सर्वाश्रसिद्धि सूत्र ५/१३ की टीका। सिद्धि ५/१५। ४. सर्वार्थसिद्धि ५/१६ ।
३. नर्षि