Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
६६० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६३
अन्तरंग नित्ति रूप थे, दूसरे समय में उन प्रदेशों के स्थान पर अन्य प्रात्मनदेश अन्तरंग निवृत्ति रूप हो गये, तीसरे समय में अन्य आत्मप्रदेश अन्तरंग निवृत्ति रूप हो गये । इस प्रकार प्रतिसमय चक्षु इन्द्रिय प्रमाण मात्मप्रदेशों के बदलने के कारण उन बच्चों को पृथिवी प्रादि पदार्थ भ्रमण करते हुए दिखलाई देते हैं । जैसे तेज चलने वाली रेल में बैट हुए यात्री को वृक्ष आदि चलते हुए दिखलाई देते हैं।
शंका-रूपी जीव के सर्व प्रात्म-प्रदेश्य अचल काव होते हैं ?
समाधान-अयोगकेवली के सर्व प्रात्मप्रदेश अचल रहते हैं। प्रयोगकेवली के प्रात्मप्रदेशों का कर्म रूप पुद्गलों के साथ संश्लेष सम्बन्ध होने के कारण प्रयोगकेवनी मूर्तिक है। सिद्ध जीव अमुर्तिक है।
पुद्गल द्रव्य चल है पोग्गलदव्यम्हि अणू संखेज्जादी हबंति चलिदा हु ।
चरिममहवखंधम्मि य चलाचला होंति हु पवेसा ॥५६३॥ गाथार्थ - पुद्गल द्रव्य में अणु से लेकर संख्यात, असंख्यात व अनन्त अणुगों के सभी स्कन्ध चल हैं किन्तु अन्तिम महास्कन्ध के प्रदेश चलाचल (चन-अचल) हैं ।। ५६३ ।।
विशेषार्थ-क्रिया, बल, अस्थिति ये तीनों शब्द पर्यायवाची हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य अरूपी होने के कारण अचल (निष्क्रिय) हैं किन्तु रूपी (संसारी) जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य चल अर्थात् क्रियावान हैं (गा. ५६१) । गा. ५६२ में रूपी जीव द्रव्य का कथन हो चुका है। इस गाथा में पुद्गल द्रव्य के सक्रियत्व का कथन है ।
शंका -- क्रिया किसे कहते हैं ?
समाधान---अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से द्रव्य की क्षेत्र से क्षेत्रानगर रूप होने वाली पर्याय किया है ।' प्रदेशान्तर-प्राप्ति की हेतु परिस्पन्दरूप पर्याय क्रिया है ।
बहिरंग साधन के साथ रहने वाले पुद्गल क्रियावान हैं।
शङ्का-पुद्गल की क्रिया में बहिरंग साधन क्या हैं ?
समाधान—पुद्गल-अणु व स्कन्ध की क्रिया में बहिरंग साधन काल है। जिस प्रकार सब द्रव्यकर्म और नोकर्म पुद्गलों का अभाव करके जो जीव सिद्ध हो जाते हैं वे क्रियारहित हो जाते हैं, क्योंकि बहिरंग साधन का अभाव हो गया। किन्तु ऐसा पुद्गलों में नहीं होता क्योंकि काल सदा ही विद्यमान रहता है। उसके निमित्त से पुद्गलों में यथासम्भव क्रिया होती रहती है। महास्कन्ध
१. जयधवल पु. १ पृ. ४३ ; घघल' पृ. १ पृ. २६२; पू. १४ पृ. ४५; पु. १५ पृ. ३२, पु. १६ पृ. ५१२ । २. "उभयनिमिनवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य क्षेत्रान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया ।" [ सर्वार्थसिद्धि ५/७]। ३. "प्रदेशांतरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्याय: क्रिया ।" | पंचारितका गा. टीका] ।