Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६४४ /गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७४-५७७
इस प्रकार जब प्रतिशलाका कुण्ड भी भर त्रुके तब एक दाना महाशलाका कण्ड में डाला जाएगा । क्रम से भरते हुए जब ये चारों कुण्ड भर जायेंगे तब अन्त में जो अनवस्थित कुण्ड बनेगा उसमें जितने प्रमाण सरसों होंगे, वही जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण होगा। इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार प्राप्त जघन्य युक्तासंख्यात समयों की एक पावली होती है।
वह व्यवहारकाल-समय, आवली, क्षण (स्तोक), लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, प्रयन संवत्सर,युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।'
जाका-तो फिर इसके 'काल' ऐसा व्यादेश कैसे हुआ?
समाधान - नहीं, क्योंकि जिसके द्वारा कर्म, भय, काय और प्रायु की स्थितियाँ कल्पित या संख्यात की जाती हैं अर्थात् यही जाती हैं, वह काल है। इस प्रकार काल शब्द को व्युत्पत्ति
काल, ममय और प्रडा ये सब एकार्थवाची नाम हैं।
एक परमाणु का दूसरे परमाणु के व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है, वह 'समय' है। असंख्यात समयों को ग्रहण करके एक प्रावली होती है। तत्प्रायोग्य संख्यात प्रावलियों से एक उच्छ्वास-निःश्वास निष्पन्न होता है। सात उच्छ्वासों से एक स्तोक संज्ञिक काल निष्पन्न होता है। सात स्तोकों से एक लव और सादे अड़तीस लवों से एक नाली और दो नालिक से एक मुहूतं होता है ।
उच्छ्यासानां सहस्राणि त्रीणि सप्त शतानि च । त्रिसप्ततिः पुनस्तेषां मुहूतों टेके इष्यते (३७७३) ॥१०॥'
–तीन हजार सात सौ तेहत्तर (३७७३) उच्छवासों का एक मुहुर्त होता है।
अड्ढस्स प्रणलसस्स य णिरुवहवस्स य जिणेहि जंतुस्स । उस्सासो हिस्सासो एगो पाणो त्ति प्राहिदो एसो॥३५॥
-जो सुखी है, बालस्य रहित है और रोगादिक की चिन्ता से मुक्त है, ऐसे प्राणी के श्वासोच्छ्वास को एक प्रारण कहते हैं । ऐसा श्रुतकेवली ने कहा है।
कितने ही प्राचार्य सात सौ बीस प्राणों का एक मुहर्त होता है, ऐसा कहते हैं, परन्तु प्राकृत अर्थात् रोगादि से रहित स्वस्थ मनुष्य के उच्छ्वासों को देखते हुए उन प्राचार्यों का इस प्रकार कथन करना घटित नहीं होता, क्योंकि जो केवलीभाषित अर्थ होने के कारण प्रमाण है, ऐसे इस सूत्र
१. "तसा समय-प्रावलिय-बाप-लय-मुहन-दिवस-पल-मास उडु-प्रयण-संबच्छर-नृग-पृथ्व-पब्ब-पलिदोवमसागरोवमादि-रूवतादो।" | धवल पु. ४ पृ. ३१७]। २. धवल पु. ४१.३१८, पृ.३ पृ. ६५ । ३. धवल पु. ४ पृ. ३१८ । ४. धवल पु. ३ पृ. ६६ ।