Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६४६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५७८-५७६
एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है । पन्द्रह दिन का एक पक्ष होता है । दो पक्षों का एका मास होता है। बारह मास का एक वर्ष होता है । पाँच वर्षों का एक युग होता है। इस प्रकार ऊपर-ऊपर भी कल्प उत्पन्न होने तक कहते जाना चाहिए।'
शा-निमिग, काष्ठा, कला इन कालों का क्या प्रमाया है ?
समाधान-आँख की पलक मारने से जो प्रगट हो व जिसमें असंख्यात समय बीत जाते हैं, वह निमिष है। पन्द्रह निमिषों की एक काष्ठा होती है, तीस काष्ठानों की एक कला होती है। कुछ अधिक बीस कला को एक नाली अर्थात् घटिका या घड़ी होती है ।
शङ्का-ऋतु व अयन का क्या प्रमाण है ?
समाधान-दो मास की एक ऋतु होती है। तीन ऋतु का एक अयन होता है। दो अयन का एक वर्ष होता है । इत्यादि पल्योपम, सागर आदि व्यवहार काल जानना चाहिए 13
शङ्का -देवलोक में तो दिन-रात्रिरूप काल का प्रभाव है, फिर वहाँ पर काल का व्यवहार कसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यहां के काल से ही देवलोक में काल का व्यवहार होता है।
शङ्का-मनुष्यलोक में ही कालविभाग (व्यवहार काल) क्यों होता है ?
समाधान - "मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो नलोके ॥१३॥ तत्कृतः कालविभागः ॥१४॥"
सुर्य-चन्द्रमादि ज्योतिषी देव मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले और निरन्तर गतिशील हैं। उनके द्वारा किया हुआ दिन, रात, पक्ष, मास, अयन आदि काल-विभाग होता है। चूकि ज्योतिषी देवों का गमन मनुष्यलोक में ही होता है, अतः मनुष्यलोक में ही व्यवहार झाल का विभाजन होता है ।
प्रकारान्तर से व्यवहारकाल का प्रमारण ववहारो पुरण तिविहो तोदो वट्टतगो भविस्सो दु । तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणं तु ॥५७८॥ समग्रो हु यट्टमारणो जीयादो सन्यपुग्गलादो वि ।
भावी अणंतगुरिणदो इदि ववहारो हवे कालो ॥५७६।। गाथार्थ-भूत-वर्तमान और भविष्यत् के भेद से व्यवहार काल तीन प्रकार का है ।
१. "विशमुहतो दिवसः । पंचदश दिवसाः 'पक्षः । द्वी पक्षी मासः । द्वादशमासं वर्षम् पंचभिवयुगः । एवमुवरि वि वत्तन्त्रं जाव कप्पोति ।"[धवल पु. ४ पृ. ३१८, ३१९-३२०]। २.३, पं. का, गा. २५ तात्पमं वृत्ति टीका । ४. धवल पु. ४ पृ. ३२१ । ५. त. मू. अध्याय ५ ।