Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६३८ / गो. सा. जीव काण्ड
वाला है वह परमार्थ ( मुख्य, निश्चय) काल है ।"
णिजन्त 'वर्त' धातु से कर्म या भात्र में 'युद्ध' प्रत्यय करने पर स्त्रीलिंग में वर्तना शब्द बनता है; जिसकी व्युत्पत्ति 'वर्त्यते' या 'वर्तनमात्रम्' होती है । यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह पर्याय बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती है, इसलिए पर्याय को प्रवतनिवाला काल है, ऐसा मान कर वर्तना काल का उपकार है।
शङ्का - णिजर्थ क्या है ?
समाधान - - द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है । प्रत्यय का अर्थ है |
शङ्का -- यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है, जैसे शिप्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है; यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है ?
गाथा ५६६
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समाधान- यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्त्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे शीत ऋतु में कण्डे की अग्नि पढ़ाती है, यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्त मात्र है, उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।
शंका- वह काल है यह कैसे जाग जाता है ?
समाधान - समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक के समय, पाक इत्यादिक रूप से अपनी-अपनी रौढ़िक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समय-काल श्रदपाककाल इत्यादि रूप से कालसंज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्य काल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।
धर्मादि मूर्तयों में काल द्रव्य का उपकार किस प्रकार है ? धमाधम्मादी प्रगुरुलहूगं तु छहिं वि वड्ढीहि । हासीहि वि वढतो हायंतो वट्टबे जला ।। ५६६ ।।
गाथार्थ धर्म-अधर्म आदि (शुद्ध) द्रव्यों में अगुरुलघु गुण में छह वृद्धि व छह हानि के द्वारा वृद्धि व हानि रूप वर्तन होता है ।। ५६६।।
१. परमट्टी" [वृहद् अन्य संग्रह गा. २१ टीका ] केयानुअक्षर गा. २१६ की टीका में उद्धृत ।
विशेषार्थ - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य और सिद्धजीव इनमें स्वाभाविक गुरुलघु गुण होता है ।
शंका- धर्म, धर्म, श्राकाश और काल में अगुरुलघुत्व किस प्रकार है ?
२. सर्वार्थसिद्धि ५ / २२
३. स्वामिकालि