Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ५७० ५७१
सभ्यक्त्वमागंरणा / ६३६
समाधान - अनादि पारिणामिक अगुरुलघु गुण के योग से ।
शंका - मुक्त (सिद्ध) जीवों के अनुरुलघुत्व किस प्रकार है ?
समाधान- अनादि कर्म- नोकर्म के सम्बन्ध के कारण जो कर्मोदय कृत गुरुलघु होता था, उससे मुक्त जीव प्रत्यन्त निवृत्त ( रहित ) हो जाने से उनके स्वाभाविक गुरुलघु गुरण का श्राविर्भाव हो जाता है।'
धर्म आदि द्रव्यों में अगुरुलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेदों में छह वृद्धियों द्वारा वृद्धि और यह हानियों द्वारा हानि रूप परिणमन होता है । उस परिणमन में भी मुख्यकाल अर्थात् काल द्रव्य कारण होता है ।" धर्म, अधर्म, आकाश में अगुरुलघुगुण की हानि व वृद्धि से परिणाम होता है । "
काल द्रव्य वर्तन का कारण किस प्रकार होता है
राय परिणमदि सयं सो गय परिणामेइ प्रणमहि । विविपरिगामियाणं हवदि हु कालो सघं हेदु
|| ५७० ॥ *
गाथार्थ - काल द्रव्य स्वयं अन्य रूप परिणमन नहीं करता और न अन्य द्रव्य को अन्य रूप परिमाता है | विविध परिणमन करने वाले द्रव्यों के परिणामन में हेतु (कारण) होता है ।। ५७० ।।
विशेषार्थ संक्रमविधान से काल द्रव्य अपने गुणों के द्वारा अन्य द्रव्य रूप परिणमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों को या उनके गुणों को अपने रूप परिणामाता है । काल द्रव्य हेतुकर्ता होते हुए भी अन्य द्रव्य या अन्य गुण रूप नहीं परिणमता । परिणमन करते हुए नाना प्रकार के द्रव्यों के परिणमन में स्वयं उदासीन निमित्त कारण होता है। जैसे काल द्रव्य उदासीन कारण है वैसे ही धर्मादि द्रव्य भी उदासीन निमित्त हैं । सर्व द्रव्य अपने-अपने परिणामन (परिणमन गुण) से युक्त होने पर भी कालादि ( द्रव्य क्षेत्र काल भाव ) सहकारी द्रव्यों के मिलने पर ही अपनी-अपनी पर्यायों को उत्पन्न करते हैं।
I
-
कालं ग्रस्सिय दध्वं सगसगपज्जायपरिज्ञवं होदि ।
पज्जायावद्वाणं सुद्धाये होदि खगमेत ॥ ५७१ ॥
गाथार्थ - काल के आश्रय से ही द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों से परिरात होता है । पर्याय की स्थिति शुद्धन की अपेक्षा क्षण मात्र होती है ।।५७१ ।।
विशेषार्थ पर्याय से प्रयोजन अर्थ पर्याय से है, क्योंकि पर्याय एक समय मात्र रहती
१. "नादिकर्म-नो कर्म-सत्रन्यानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्
तदस्यंत विनिवृत्तौ तु स्वाभाविकमाविर्भवति ।"
1 रा. वा. ६ / ११ / १२ / २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१६ की टीका | ३. धर्माधिकाशानामगुरुलघु गुणवृद्धिहानिकृतः ।" [स.सि. ५ / २२ ] । ४. धवल पु. ४ पृ. ३१५, पु. ११७६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१७ की टीका । ५. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २१७ की टीकर |