Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५६५-५६७
वरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमायो । पुढबीपरियंसस्स य सदो सो पोलो चित्तो ॥ ४०३
सम्यक्त्वमार्गणा । ६३३
[ प्रवचनसार ज्ञेयतस्याधिकार ]
- सूक्ष्म परमाणु से लेकर महास्वन्ध पृथिवी पर्यन्त पुद्गल के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार प्रकार के गुण विद्यमान रहते हैं । इनके सिवाय अक्षर अनक्षर आदि के भेद से विविध प्रकार का जो शब्द है, वह भी पुद्गल है अर्थात् पुद्गल की पर्यात् है ।
गमन करते हुए जीव और पुद्गल की गति में निष्क्रिय धर्म द्रव्य सहकारी कारण होता है, जैसे गमन करते हुए पथिक को मार्ग सहकारी कारण होता है अर्थात् जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी होना यह धर्म द्रव्य का उपकार है ।
गड़ परियाण धम्मो पुग्गल जीवारण गमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं श्रच्छंताणेव सो पेई ॥ १७ ॥
[[बृहद् ब्रव्यसंग्रह ] ----क्रियारहित, श्रमूर्त, प्रेरणारहित धर्म द्रव्य गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को गमन में सहकारी होता है । जैसे- मत्स्य आदि के गमन में जल सहायक कारण होता है ।"
गवि किरियात्ताणं कारणभूवं सयमकज्जं ॥उत्तरार्ध ८४ ॥ [ पंचास्तिकाय ]
यद्यपि धर्म गमन करते हुए जीव और पुद्गलों की तरफ उदासोन है तथापि उनकी गति के लिए सहकारी कारण है । *
"धम्मree गमरणहेतुत्त ।" [ प्रवचनसार गा. ४१ जेयतत्त्वाधिकार ]
-जीव और पुद्गलों के गमन में हेतु (सहायक कारण ) होना धर्म द्रव्य का गुण हैं। *
शंका- धर्मं द्रव्य को निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित कहा गया है। यहाँ क्रिया से क्या अभिप्राय
है ?
समाधान - अंतरंग और बहिरंग निमित्त से द्रव्य का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त होना किया है।" अथवा प्रदेशान्तर प्राप्ति का हेतु ऐसी जो परिस्पन्द रूप पर्याय वह क्रिया है । " जो इस प्रकार की क्रिया से रहित है वह निष्क्रिय है ।
शंका- यदि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय है तो उनका उत्पाद नहीं बनता। अतः सब द्रव्य उत्पाद प्रादि तीन रूप होते हैं, इस सिद्धान्त का व्याघात हो जाता है।
१. बृहद्रव्यसंग्रह गा. १४ की टीका । २. "थर्मोपि स्वभावेनैव गतिपरिणत जीवपुद् गलानामुदासीनोपि गतिसहकारिकारणं मवति ।" [पचास्तिकाय गा. ८४ तात्पर्यवृत्ति ] । ३. "गमा शिमित्तं घम्मम् ।" [नियमसार गा. ३०] । ४. “ उभयनिमित्तवशादुद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । [स.सि. ५ / ७ / ५. "प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्याय: क्रिया ।" [ पंचास्तिकाय गा. ६ समयव्याख्या] ।