Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६३४ गो. सा. जीवकाण्ड
गाचा ५६५-५६७
समाधान नहीं, क्योंकि इनमें उत्पाद आदि तीनों अन्य प्रकार से बन जाते हैं । यथा-ये धर्मादि द्रव्य कम से प्रश्न प्रादि की गति, स्थिति और अवगाहम में कारण हैं। चूकि इन गति मादिक में क्षणक्षरण में अन्तर पड़ता है इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए. इस प्रकार इन धर्मादि तीन (धर्म, अधर्म, प्राकाश) द्रव्यों में पर-प्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य बन जाते हैं।
शंका--धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं तो ये जीव और पुद्गल की गति आदिव के कारण नहीं हो सकते, क्योंकि जलादिक क्रियावान होकर ही मछली आदि की गति ग्रादि में निमित्त देखे जाते हैं, अन्यथा नहीं?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि चक्ष इन्द्रिय के समान ये बलाधान निमित्तमात्र हैं। जैसे चक्ष इन्द्रिय प के ग्रहण करने में निमित्त मात्र है, इसलिए जिसका मन व्याक्षिात है उसके चक्ष इन्द्रिय के रहते हुए भी एप का ग्रहण नहीं होता। उसी प्रकार प्रकृत में समझ लेना चाहिए । इस प्रकार धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव व पुद्गल की क्रिया में ये सहकारी कारण होते हैं।'
जिस प्रकार धर्म द्रब्य जीव पुदगलों की गति में सहकारी कारण है उसी प्रकार जीव और पुद्गलों की स्थिति में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। जैसे-पासन स्थिति में सहकारी कारण
ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजोधारण ठाणसहयारी। छाया जह पहियाणं गच्छंता व सो धरई ।।१८।। [वृहद्रव्यसंग्रह]
-लोक व्यवहार में जैसे छाया अथवा पृथिवी ठहरते हुए यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होती है उसी तरह स्वयं ठहरते हुए जीव-पुद्गलों को ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण होता है किन्तु गमन करते हुए जीय-पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता ।
जह हदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं । ठिदिकिरिया जुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥५६॥ [पंचास्तिकाय]
-जैसा धर्म द्रव्य है, वैसा ही अधर्म द्रव्य है, जो पृथिवी के समान, स्थिति प्रिया करते हुए जीव-पुद्गलों को निमित्त कारण होता है। जैसे पृथिवी स्वयं पहले से ठहरी हुई दूसरों को न ठहराती हुई घोड़े प्रादिकों के ठहरने में वाहरी सहकारी कारण है, वैसे स्वयं पहले से ठहरा हुआ अधर्म द्रव्य जीव-पुद्गलों वो न ठहराता हुआ उनवे ठहरने में सहकारी कारण होता है।
गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। 3
शङ्का-उपकार क्या है ?
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३. "गतिम्थित्युपग्रही थर्माधर्मयोप
१, मर्वार्थसिद्धि ५/७। २. पंचास्तिकाच गा. ८६ की टीका। कारः ।।५:१७।" [त. भू.] ।