Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५६५-५६७
सम्पत्वमागंगा, ६३५
समाधान -- गति उपग्रह और स्थिति उपग्रह (गति में निमित्त होना और स्थिति में निमित्त होना) यही उपकार है।
शंका--धर्म और अधर्म द्रव्य का जो उपकार उसे आकाश का मान लेना युक्त है, क्योंकि अाकाश सर्वगत है ?
समाधान—यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ग्राकाश का अन्य उपकार है । सब द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है ।' जिस प्रकार प्राकाश अवगाह हेतु है उसी प्रकार यदि गतिस्थिति हेतु भी हो तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक उर्ध्व गति से परिणत सिद्ध भगवान, बहिरंग-अंतरंग साधन रूप सामग्री होने पर भी, क्यों लोकाकाश के अन्त में स्थिर हों। चूकि सिद्ध भगवान गमन करके लोक के ऊपर स्थिर होते हैं अतः गति-स्थिति-हेतुत्व आकाश में नहीं है, ऐसा निश्चय है । लोक और अलोक का विभाग करने बाले धर्म तथा अधर्म द्रव्य ही गति तथा स्थिति के हेतु हैं। प्राकाश गति-स्थिति का हेतु नहीं है, क्योंकि लोक और अलोक की सीमा की व्यवस्था इसी प्रकार बन सकती है। यदि आकाश को ही गति-स्थिति का निमित्त माना जावे, तो आकाश का सद्भाव सर्वत्र होने के कारण जीव-पुद्गलों की गति-स्थिति की कोई सीमा न रहने से प्रतिक्षण प्रलोक की हानि होगी तथा पूर्व-पूर्व व्यवस्थित लोक का अन्त उत्तरोत्तर वृद्धि होने से टुट जाएगा, इसलिए आकाश गति-स्थिति हेतु नहीं है। धर्म और अधर्म ही गति स्थिति के कारण हैं, प्राकाश नहीं।'
मागास प्रवगासं गमणदिदि कारणेहि देदि जदि । उड्द गविप्पधारणा सिद्धा चिट्ठति किष तरथ ॥२॥ ममा उयरिद्वारणं सिद्धारणं जिबरेहिं पण्णसं । तम्हा गमगढाणं प्रायासे जाण गस्थित्ति ।।६३॥ जदि हवदि गमणहेतू प्रागासं ठाणकारणं तेसि । पसजदि प्रालोगहारणी लोगस्त य अंत परिबुड्ढी ॥१४॥ तमा धम्माधम्मा गमणदिदि कारणारिण रणागासं ।
इदि जिएवरेहिं भरिणदं लोगसहावं सुणताणं ।।६५॥' इन गाथानों का भाव ऊपर कहा जा चुका है ।
प्रवगासवाणजोग जीवादीणं वियाए प्रायासं।
जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि विहं ॥१६॥ -जो जीव प्रादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है वह अाकाश द्रव्य है । लोक्राकाश और अलोकाकाश डन भेदों से आकाश दो प्रकार का है।
सव्वेसि जीवाणं सेलारणं तह य पुग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि प्रायासं ॥१०॥
१. सर्वार्थ सिद्धि ५/१७ । २. पंचास्तिकाय गा.६२-६५ तक को श्री अमृनचन्दाचार्य कृत टीका । ३. पंचास्तिकाय ! ४. वृहद् द्रत्र्यसंग्रह। ५. पंचास्तिकाय ।