Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६३०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६३-५६४
अजीव द्रव्य भी रूपी और ग्ररूपी के भेद से दो प्रकार का है । शंकर-जीव और अजीव किसे कहते हैं ?
समाधाम-जीव का लक्षण चेतना है। वह चेतना ज्ञानादि के भेद से अनेक प्रकार की है और उससे विपरीत लक्षण वाला अर्थात अचेतना ललग जिम्का है मह राजीद है.'
अज्जीवो पुरण रपेभो पुग्गलधम्मो प्रधम्म प्रायासं ।
कालो पुग्गलमुत्तो रुवाविगुरणो अमुत्ति सेसा दु ॥१५॥ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये पाँच अजीब द्रव्य जानने चाहिए । इनमें मप आदि गुरगों का धारक पुद्गल मूर्तिमान है और शेष (धर्म, अधर्म, अाकाश, काल) चार द्रव्य प्रमूर्तिक हैं। पूरण-गलन स्वभाव सहित होने से पुद्गल कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य मूर्त है, क्योंकि रूप प्रादि गुणों से सहित है । पुद्गल के अतिरिक्त शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये दारों द्रव्य अमुर्त हैं, क्योंकि इनमें रूपादि गुण नहीं हैं।
प्रागासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीगा। मुत्तं पुग्गलदध्वं जीवो खलु चेवणो तेसु ॥१७॥ [पंचास्तिकाय]
आकाश, काल, शुद्ध जीव, धर्म और अधर्म ये द्रव्य अमूर्त है । पुद्गल द्रव्य मुनं है। इन सव में जीव ही चेतन है । स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण का सद्भाव जिमका स्वभाव है वह मूर्त है । स्पर्श-रस-गन्धवर्ण का प्रभाव जिसका स्वभाव है वह अमूर्त है। प्रानाश अमूर्त है, काल अमूर्त है, धर्म अमूर्त है, और अधर्म भी अमूर्त है । जीव स्वरूप से अमूर्त है, किन्तु पर रूा आवेश से भून भी है। पुद्गल मूर्त ही है । प्राकाश अचेतन है. धर्म अचेतन है, अधर्म अचेतन है, पुद्गल अचेतन है । जीव ही एक चेतन
पुद्गल रूपी है ।।५।' रूपादि के आकार से परिणमन होने को मूर्ति कहते हैं। जिनके रूप पाया जाता है वे रूपी है अर्थात् मूर्तिमान हैं । अथवा रूप यह गुणविशेष का वाची है वह जिनके पाया जाता है वे रूपी हैं रसादिक रूप के अविनाभावी हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव रूप में हो जाता
पुग्गलदच्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसारिण पूर्वाध गा. ३७ ॥[नियमसार] पुद्गल द्रव्य मूर्त है और शेष द्रव्य अमूर्त हैं।
१."तत्र चेतनालक्षणो जीवः । सा च ज्ञानादिभेदादनेकधा मिद्यते । सद्विपर्यय लक्षणोऽजीवः ।" [स. सि. १।४] २. गद्रव्यसंग्रह । ३. "पूरणगलनस्वभावत्वात्पुद्गल इत्युच्यते । पुद्गलो मूर्त: रूपादिगुरगसहितो यतः रूपादिगुणाभावादमुर्ता भवन्ति गुद्गलाच्छेषाश्चत्वार इति ।" [बृहद् द्रव्यसंग्रह गा. १५ की टोका] ४. "स्पर्शरस गंध वर्ण सद्भाव स्वभाव मूर्त । स्पर्शरसगंधवराभिावस्वभावममूर्त । तत्रामुर्तमाकाशं, प्रमूर्तः कालः, प्रमूर्तः स्वरूप जीव: पररूपावेशान्मुर्तोऽपि, अमूर्ती धर्मः, अमृतोऽधर्म:, मूर्तः पुद्गल एवैक इति । अचेतनम् प्राकाशं, प्रचेतनः काल:, अचेतनो धर्मः, अचेतनोऽधर्मः, अचेतनः पुदगलः, चेतना जीव एवंक इति ।" पं. का. गा. ७ टीका] । ५. त. सू. अ.५। ६. म. शि. ५५ ।