Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गापा ५६१
सम्यक्त्वमागंगा/६९७
जो ण बिजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥३२४॥
[स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा] —जो तत्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है, जो जिनधर ने कहा है उस सव की मैं इच्छा (पसंद) करता है. ऐसा मानने वाला भी आज्ञा सम्यक्त्वी है ।
शङ्का-तत्त्वों को क्यों नहीं जानता ? ____समाधान -- ज्ञानाबरण आदि कर्म के प्रबल उदय के कारण जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये जीवादि वस्तु को नहीं जानता है।'
"प्रधिगमोऽर्यावबोधः ।"२ पदार्थ का ज्ञान 'अधिगम' है ।
यद्यपि दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम कप अंतरंग कारण दोनों सम्यक्त्व में समान है किन्तु बाह्य निमित्त में अन्तर है। बाह्य उपदेशपूर्वक जीयादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से जो सम्यग्दर्शन होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।'
अथवा, यह गाथा सूत्र 'ताल-प्रलम्ब' सूत्र के समान देणामर्शक होने से सम्यग्दर्शन के दस भेदों का सूचक है । ये दस भेद वाह्य निमितों की अपेक्षा से हैं
प्राज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात सूत्रयोजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमपरमावादिगाढे च ॥११॥ [श्रात्मानुशासन]
- ग्राज्ञा से उत्पन्न, मार्ग से उत्पन्न, उपदेश से उत्पन्न, सूत्र से उत्पन्न, बीज से उत्पन्न, संक्षेप से उत्पन्न, विस्तार से उत्पन्न, अर्थ से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, ये आठ भेद बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होने की अपेक्षा हैं। प्रवगाढ़ और परमावगाढ़ ये दो भेद ज्ञान की सहचरता के कारण श्रद्धान की अपेक्षा से हैं।
शङ्का-क्षायिक सम्यग्दर्शन परमावगाढ़ है, व उपशम ब क्षयोपणम अवगाह सम्यवत्व हैं ?
समाधान - अंग और अंगबाह्य प्रवचन (शास्त्र) के अवगाहन से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अवगाढ़ दृष्टि है और केवलज्ञान में समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष झलकने से जो श्रद्धा होती है वह परमावगाढ़ दृष्टि है । छपरथों के परमात्रगाढ़ सम्यक्त्व नहीं हो सकता। कहा भी है
"दृष्टिः सानाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाहोस्थिता यावगाहा । कंवल्या-लोकितार्थे रुधिरिह परमायादिगाढेति सदा ॥२४॥"
[प्रात्मानुशासन ]
१. " पुमान तर जिनोदितं जीवादिवस्तु ज्ञानाबरगणादिकर्मप्रबलोदयात् न विजानाति न च ग्रेति ।" [स्वामिकार्तिकेया प्रेक्षा गा. ३२४ पर श्री शुभचन्द्राचार्य बिरचित टीका] । २. स. सि. १/३। ३. स. सि. १/३ ।