Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५६१
सम्यक्त्वमागंगा/६२५ शंका - व्यय के न होने से व्युच्छित्ति को प्राप्त न होने वाली प्रभध्य राशि की 'अनन्त' यह संज्ञा कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अनन्तरूप केवलज्ञान के ही विषय में अवस्थित संख्यानों के उपचार से अनन्तपना मानने में कोई विरोध नहीं पाता ।'
जावदियं पच्चपखं जुगवं सुवमोहिकेवलारण हो । तावदियं संखेज्जमसंखमणतं कमा जारणे ॥५२॥
जितने विषयों को भूतान युगपत् प्रत्तानता है वा माना है। जितने विषयों को अवधिज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, वह असंख्यात है। तथा जितने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है वह अनन्त है। जो विषय श्रुतज्ञान से बाहर हो किन्तु अवधिज्ञान का विषय हो वह असंख्यात है। जो विषय अवधिज्ञान से बाह्य हो, किन्तु मात्र केवलज्ञान का विषय हो वह अनन्त है। इस परिभाषा के अनुसार 'अर्धपुद्गल परिवर्तन काल' भी अनन्त है, क्योंकि वह अवधिज्ञान के विषय से बाहर है, किन्तु वह परमार्थ अनन्त नहीं है, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल व्यय होते-होते अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् समाप्त हो जाता है। आय के बिना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि अक्षय अनन्त या परमार्थ अनन्त है।'
इस प्रकार गोम्मटमार जीवकाण्ड में भव्य मार्गणा नामक मोलहवां अधिकार पूर्ण हुमा ।
१७. सम्यक्त्वमार्गणाधिकार
सम्यक्त्व का लक्षण छप्पंचगवविहाणं प्रत्याणं जिरणवरोवइट्ठाणं ।
प्रारणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥५६१॥' गाथार्थ जिनेन्द्र के उपदिष्ट छह द्रव्य, पंचास्तिकाय और नब प्रकार के पदार्थों का प्राज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ।।५६१।।
विशेषार्थ-वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक ऐसे जिनेन्द्र के द्वारा छह द्रव्य आदि का उपदेश दिया गया है, उसका उसी रूप से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। जो रागी-द्वेषी होता है वह यथार्थ वक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह जिससे राग होगा उसके अनुकूल और जिससे द्वेष होगा उसके प्रतिकूल कथन करेगा। इसलिए यथार्थ वक्तव्य के लिए बीतराग होना अत्यन्त आवश्यक है । जिसे सर्व पदार्थों का ज्ञान नहीं है, वह भी यथार्थ वक्ता नहीं हो सकता क्योंकि अज्ञानता के कारण अयथार्थ कहा जाना सम्भव है। आत्मा अर्थात जीव का हित मुख है ।
३. त्रिलोकसार.४६४. धवल पू.१.१५२,
१. अवलप.७५.२६५-२६६. २. त्रिलोकसार । ३६५, . ४. ३१५, प्रा. पं. सं. अ.१ गा.१५६ ।