Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६२६. गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५६१
दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् ।
दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥२॥ [प्रात्मानुशासन] - हे पात्मन् ! तु दु:खों से अत्यन्त भयभीत होता है और सब प्रकार से सूख की कामना कारता है अतः मैं भी दुःखहारी और सुखकार ऐगे तेरे अभीप्सित अर्थ (प्रयोजन) का ही उपदेश करता हूँ।
"सर्वः प्रेप्सति सत्सुरवाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् ।"[मात्मानुशासन श्लोक ह] -सर्व जीव गुख की शीघ्र-प्राप्ति की इच्छा करते हैं । सुख की प्राप्ति सर्बकर्म के क्षय से होती है अर्थात् मोक्ष में होती है, क्योंकि मोक्षसुख स्वाधीन और निराकुल है। जिस उपदेश में कर्मक्षय (मोक्ष) और कर्मक्षय के कारणों (मोक्षमार्ग) का कथन हो वही उपदेश हितोपदेश है। जिनेन्द्र ने मोक्ष अवस्था व मोक्षमार्ग इन दोनों पर्यायों सम्बन्धी उपदेश दिया है अतः जिनेन्द्र हितोपदेशक हैं।
इस प्रकार जिनेन्द्र वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक होने के कारण यथार्थ वक्ता हैं अत: उनके द्वारा उपदिष्ट जीव, पुदगल, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्राकाश और काल ये छह द्रव्य भी यथार्थ हैं । काल के अतिरिक्त जीव दगल, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य और आकाश ये पांचों बहप्रदेशी हो और सत् रूप होने से ये पांचों अस्निकाय है। जीव, मजीन, प्रसन, मान, संवर, निगमोक्ष, पुण्य और पाप इन नव पदार्थों का भी जिनेन्द्र ने उपदेश दिया है। जिस प्रकार जिनेन्द्र ने इन छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थ का कथन किया है, जिस रूप से कथन किया है उसी रूप से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। प्राप्त, यागम और पदार्थ ये तत्त्वार्थ हैं और इनके विषय में श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति सम्यग्दर्शन है।' तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है अथवा तत्त्व में रुचि होना सम्यक्त्व है । अथवा प्रशम, संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति ही जिसका लक्षण है वह सम्यक्त्व है। वह सम्यक्त्व दो प्रकार से होता है। आज्ञा के द्वारा श्रद्धान करना अथवा अधिगम के द्वारा थद्धान करना। सर्व प्रथम प्राज्ञा सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार है
"प्राशासम्यक्त्वमुक्त यदुत विधितं वीतरागाशयय ।" पूर्वार्थश्लोक १२॥'
वीतराग की आज्ञा ही करि जो श्रद्धान होई सो प्राज्ञा सम्यक्त्य है ।
पंचस्थिया य छज्जीवरिणकायकालदम्बमष्णेया । मारणागेज्झे भावे पारगाविधएष विपिणादि ॥३६६ मूलाचार]
-..पाँच अस्तिकाय, छह जीब निकाय, काल द्रव्य व अन्य पदार्थ मात्र आज्ञा से ही ग्राह्य हैं, उनका जो आज्ञा के विचार से श्रद्धान करता है, वह अाज्ञा सम्बष्टि है।
१. "तत्वार्थश्रद्धाने सम्यग्दर्शनम् । अस्य ग मनिकोच्यने प्राप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शन मितिलक्ष्यनिर्देशः ।' [ एवल पु. १ पृ. १५१] । २. "तत्वार्थश्रद्धानं सम्पग्दर्शनम् प्रयवा तत्त्वरुचिः सम्यवत्वम् प्रथाप्रशम संवेगानुकम्पारितक्याभिव्यक्ति लक्षणं सम्पफ्त्वम् ।" (धवल पु. ७ पृ.७] । ३. प्रात्मानुशासन ।