Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६२४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा- - श्रभव्य राशि का परिमाण जघन्य युक्तानन्त है। सर्व संसारी जीवों में से अभव्य राशि को कम कर देने पर शेष भव्य राशि का प्रमाण है ।। ५६० ॥
विशेषार्थ भव्य सिद्धिक जीव द्रव्य प्रमाण से श्रनन्त हैं। काल की अपेक्षा भव्यसिद्धिक जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिरिणयों से अपहृत नहीं होते । अपहृत न होने का कारण यह है कि यहाँ श्रनन्तानन्त अवसर्पिणी - उत्सपिणियों से केवल प्रतीत काल का ग्रहण किया गया है।" जिस प्रकार लोक में प्रस्थ तीन प्रकार से विभक्त है अनागत, वर्तमान और प्रतीत । उनमें से जो निष्पन्न नहीं हुआ, बहू श्रनागत प्रस्थ है, जो बनाया जा रहा है वह वर्तमान प्रस्थ है और जो निष्पन्न हो चुका है तथा व्यवहार के योग्य है, वह प्रतीत प्रस्थ है। उनमें से प्रतीत प्रस्थ के द्वारा सम्पूर्ण बीज मापे जाते हैं । इससे सम्बन्धित गाथा इस प्रकार है-
पत्थ तिहा विहतो प्रणामवो वट्टमाण तीवो य । एवेसु वीरेण दु मिज्जिदे सम्म बीजं तु ॥
गाया ५५६-५६०
इसका अर्थ ऊपर कहा जा चुका है। उसी प्रकार काल भी तीन प्रकार का है अनागत, वर्तमान और प्रतीत | उनमें से अतीत काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का प्रमाण जाना जाता है।" इस सम्बन्ध में उपसंहार रूप गाथा
कालो तिहा विहलो अपागदो वट्टमाणतीदो य । एवेसु प्रवीण दु मिज्जिदे जीवरासी तु ॥
काल तीन प्रकार का है, अनागत काल, वर्तमानकाल और अतीत काल । उनमें से प्रतीत काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का प्रमाण जाना जाता है। इसलिए भव्य जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता, परन्तु अतीत काल के सम्पूर्ण समय समाप्त हो जाते हैं।
शंका- प्रतीत काल की अपेक्षा भव्य जीवों का प्रमाण कैसे निकाला जाता है ?
समाधान - एक और अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों को स्थापित करना चाहिए और दूसरी ओर भव्य जीवराशि को स्थापित करना चाहिए। फिर काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ भव्य जीवराशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीवराशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परन्तु भव्य जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता । *
अभव्यसिद्धिक द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं । यहाँ अनन्त से जघन्ययुक्तानन्त का ग्रहण करना चाहिए क्योंकि इसी प्रकार ग्राचार्यपरम्परागत उपदेश है ।
१. बबल पु. ७ पृ. २६४-२६५ । २. धवल पु. ३ पृ. २६ । ३. घवल पु. ३ पृ. २९-३० । ४. धवल पु. ३ पृ. २५