Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६२२/गो. सा. जीवकाण्ड
गापा ५५७-५५८ शङ्का-यदि ऐसा ही मान लिया जाय तो क्या हानि है ?
समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर काल की समस्त पर्यायों के क्षय हो जाने से दूसरे द्रव्यों की स्वलक्षरारूप पर्यायों का भी प्रभाव हो जाएगा और इसलिए समस्त वस्तुओं के अभाव को आपत्ति या जाएगी ।
स्वर्णपाषाण के समान भव्य जीवों के मल का नाश होने में अर्थात् निवारण प्राप्त होने का नियम नहीं है।
शङ्का-मुक्ति को नहीं जाने वाले जीवों के भव्यपना कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मुक्ति जाने की योग्यता की अपेक्षा उनके भव्य संज्ञा बन जाती है । जितने भी जीव मुक्ति जाने के योग्य होते हैं, वे सब नियम से कलकरहित होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि सर्वथा ऐसा मान लेने पर स्वर्णपाषाण से व्यभिचार पा जाएगा। जिस प्रकार स्वर्णपाषाण में सोना रहते हुए भी उसका खदान से निकलना तथा स्वर्ण का अलग होना निश्चित नहीं है, उसी प्रकार सिद्ध अवस्था की योग्यता रखते हुए भी तदनुकूल सामग्री नहीं मिलने से सिद्धपद की प्राप्ति नहीं होती है। मात्र उपादान की योग्यता से कार्य नहीं होता। कार्य के लिए तदनुकूल बाह्य सामग्री अर्थात् निमित्तों की भी आवश्यकता होती है ।
भव्यों से विपरीत अर्थात् मुक्तिगमन की योग्यता न रखने वाले प्रभव्य जीव होते हैं ।
जीव अनादि सान्त भव्यसिद्धिक होते हैं ॥१८४॥ क्योंकि अनादि स्वरूप से पाये हुए भव्यभाव का अयोगिकेवली के अन्तिम समय में विनाश पाया जाता है।
शंका-प्रभज्यों के समान भी तो भव्य जीव होते हैं, तब भत्य भाव को अनादि-अनन्त क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि भव्यत्व में अविनाश शक्ति का प्रभाव है। यद्यपि अनादि से अनन्तकाल तक रहनेवाले (नित्य निगोदिया) भव्य जीव हैं तो सही, किन्तु उनमें शक्ति रूप से तो संसार विनापा की सम्भावना है, अविनाशत्व की नहीं ।
जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होते हैं ।।१८५||
शंका--अभव्य भव्यत्व को प्राप्त हो नहीं सकता, क्योंकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभाव को धारण करने वाले होने से एक ही जीव में क्रम से भी उनका अस्तित्व मानने में विरोध पाता है। सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवों के समस्त कर्मानव नष्ट हो गये हैं उनके पुनः उन कर्मास्रवों की उत्पत्ति मानने में विरोध पाता है। अतः भव्यत्व सादि नहीं हो सकता ?
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१. घबल पु. १ पृ. २६२-२६३ । २. धवल पु. १ पृ. १५ । ३. धवल पु. १ पृ. ३६३-३१४ । ४. "तविपरीत: अमन्यः ।" [धवत पू.१५, ३६४] । ५. “अम्पादिम्रो सपज्जवसिदो ।।१०।" [घवल पु. ७ पृ. १७६ । ६. धवल पु. ७ पृ. १७६। ७. "सादियो सपज्जवसिदो ।। १६५॥" [धवल पु. ७ पृ. १७७] ।