Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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भव्य मार्गणा / ६२३
समाधान - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि पर्यायार्थिक नय के अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व अनादि अनन्त रूप है, क्योंकि तब तक उसका संसार अन्तरहित है, किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल तक ससार में स्थिति रहती है । इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि सान्त भी होते हैं । "
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जीव अनादि अनन्त काल तक प्रभव्यसिद्धिक रहते हैं ।। १८७ ॥
गाथा ५५६-५६०
शंका - प्रभव्य भाव जीव की एक व्यंजन पर्याय का नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्य होने का प्रसंग आ जाएगा ?
समाधान अभव्यत्व जीव की व्यंजन पर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजन पर्याय का श्रवश्य नाश होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं (जैसे मेरु आदि), क्योंकि ऐसा मानने पर एकान्तवाद का प्रसंग आ जाएगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होनी चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, श्रीव्य और व्यय पाये जाते हैं, उसे द्रव्य स्वीकार किया गया है।
भव्य प्रभव्य भाव से रहित जीवों का स्वरूप
ग य जे भय्याभव्वा मुत्तिसुहालीदणतसंसारा ।
ते जीवा गायव्वा णेव य भव्वा श्रभव्वा य ।। ५५।। *
गाथार्थ - जो भव्य प्रभव्य भाव से रहित हैं, किन्तु जिन्होंने मुक्ति-सुख को प्राप्त कर लिया है। और जो संसारातीत हैं उन जीवों को न भव्य और न अभव्य जानना चाहिए || ५५६॥
विशेषार्थ - सिद्ध जीव भव्य सिद्धिक तो हो नहीं सकते, क्योंकि भव्य भाव का प्रयोगिकेवली के अन्तिम समय में विनाश पाया जाता है ।" सिद्ध अभव्य भी नहीं हो सकते क्योंकि उनमें संसार अविनाश शक्ति का अभाव है। जो संसार का विनाश नहीं कर सकते वे अभव्य सिद्धिक हैं, किन्तु सिद्ध जीवों ने तो संसार का विनाश करके सिद्ध अवस्था प्राप्त कर ली है। इसलिए सिद्ध प्रभव्य भी नहीं हो सकते । सिद्ध जीव न तो भव्य हैं और न अभव्य हैं, क्योंकि उनका स्वरूप भव्य और अभव्य दोनों से विपरीत है
भव्य मागंगा में जीवों की संख्या
प्रवरो जुत्ताणंतो प्रभव्वरासिस्स होदि परिमाणं । तेरण विहीरणो सच्चो संसारी भव्यरासिस्स || ५६० ॥
१. धवल पु. ७ पृ. १७७ । २. प्रणादिनो अपज्जवसिदी ।। १८७ ।। " [ यबल पु. ७ पृ. पु. ७ . १७८ । ४. प्रा. पं. सं. १ मा १५७ पृ. ३३, पृ. ५८२ मा १४८ । अजोगि चरिमसमए विरासुरलंभादो। [ धवल पु. ७ पृ. १७६] । ६. "सिद्धा पुराण र तव्विवरीय सत्तादो ।" [ धवल पु. ७ पृ. २४२]
३. धवल
१७८ ] । ५. "भविय भावस्स भवित्रा ए च प्रभविया,