Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५६
लोश्या मार्गरणा के अनुसार शुक्ललेश्यावाले सबसे स्तोक हैं । वे पल्यापम के असंख्यालवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि अतिशय शुभ लोश्याओं का समुदाय कहीं पर विन्हीं के ही सम्भव है। शुक्ल लेश्या बालों से पद्य लेश्यावाले प्रसंख्यात गूगो हैं । गुणाकार जगत्प्रतर के प्रसंख्यातवें भाग अर्थात असंख्यात जगश्रेणी हैं, क्योंकि वह पल्लोपम के असंख्यात भाग से गुणित प्रतरांगुल से अपवतित जगत्प्रतर प्रमाण है। पद्मलेश्यावालों से तेजो लेण्यावाले संख्यात गुणे हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियतिथंच-योनिनियों के संध्यातवें भाग प्रमाण पत्रलेश्यावालों के द्रव्य का तेजो लेश्यावालों के द्रव्य में भाग देने पर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं। तेजो लेश्यावालों से लेश्यारहित अनन्तगुण हैं, गुणाकार अभव्य सिद्धों से अनन्तगुणा है । अलेश्यिकों से कापोत लेश्या वालो अनन्तगुणे हैं । गुणाकार अभव्य सिद्धकों से, सिद्धों से और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूल से भी अनन्त गुणा है।' कापोतलेण्या वालों से नीललेश्या वाले विशेष अधिक हैं। कापोतलेश्या के असंख्यातवें भाग विशेष अधिक हैं। अधिक का प्रमाण अनन्त है। नीललेश्या बालों से कृष्ण लेश्या बाले विशेष अधिक हैं। विशेष अनन्त हैं जो नील लेश्या के असंख्यात भाग प्रमाण हैं।'
लेश्यारहित जीवों का स्वरूप . किण्हादिलेस्सरहिया संसारविरिणग्गया अणंतसुहा ।
सिद्धिपुरं संपत्ता अलेस्सिया ते मुणेयब्धा ।।५५६॥' गाथार्थ -जो कृष्णादि लेश्याओं से रहित हैं, (पंचपरिवर्तन रूप) संसार से पार हो गये हैं, जो अनन्त सुख को प्राप्त हैं और सिद्धिपुरी को प्राप्त हो गये हैं, उन्हें लेश्या रहित जानना चाहिए ।।५५६॥
विशेषार्थ · कषाय के उदय-स्थान व योग-प्रवृत्ति का अभाव हो जाने के कारण कृष्ण प्रादि छह लेश्याओं से रहित जीव भी होते हैं। ऐसे परम पुरुष परमात्मा हैं। द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव इन पत्र प्रकार के परिवर्तन रूप संसार-समुद्र से निकल कर पार हो गये हैं और जो अनन्त अर्थात् जिसका अन्त नहीं है सदा काल एक सा बना रहता है ऐसे स्वाधीन अमुर्तिक सुख को प्राप्त हो गये हैं। सांसारिक सुख इन्द्रियजनित होने से पराधीन है, विषम है, कभी घटता कभी वढ़ता है, बाधा सहित है, बीच में नष्ट हो जाने वाला है, बन्ध का कारग है, इसलिए सांसारिक सुख वास्तव में दुःख रूप ही है। श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने कहा भी है
सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसर्य ।
जं इंदियेहि लद्ध तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥७६॥[प्रवचनसार] इस मुख से विपरीत लेश्यारहित जीवों का मुख होता है । कहा भी है--
णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा व बिज्जवे बाहा । वि मरणं गवि जणणं तत्येव य होई णिवाणं ॥१७॥
१. ध. पु.७.५६६-५७०।
२. घ. पू. ७ पृ. ५७० ।
३. घ. पु.१ पृ. ३६०, प्रा. पं. सं.अ.१ गा. १५३।