Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५५५
नेश्यामार्गणा/६१६
तेज लेश्या, पर लेश्या और शुक्ल लेश्या वाले जीवों का जघन्य अन्तरकाल अन्तमहतं मात्र होता है, क्योंकि तेज, पन व शुक्ल लेश्या से अपनी अविरोधी अन्य लेश्या में जाकर व जघन्य काल से लौटकर पुन: अपनी-अपनी पूर्व सेस्या में श्रानेवाले जीव के अन्समुहले मात्र जधव्य अन्तर काल पाया जाता है।
तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्त काल होता है, क्योंकि विवक्षित शुभ लेश्या से अविरुद्ध अविवक्षित लेश्या को प्राप्त हो अन्तर को प्राप्त हुआ । पुन: ग्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परिबर्तनों के कृष्ण, नील और कापोत लेण्याओं के साथ बीतने पर विवक्षित शुभ लेश्या को प्राप्त हुए जीव के उक्त शुभ लेश्याओं का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है।'
लण्या मार्गणा में भाव व अल्पबहुत्व का कथन भावावो छल्लेस्सा प्रोदयिया होंति अप्पबहगं तु ।
वश्वपमाणे सिद्ध इदि लेस्सा वलिदा होति ॥५५॥ गाथार्थ - छहों लेश्या भाव की अपेक्षा प्रौदयिक हैं । द्रव्य प्रमाण से लेण्या का अल्पबहत्त्व सिद्ध कर लेना चाहिए । इस प्रकार लेश्या का वर्णन हुअा ॥५५५॥
विशेषायं-ग्रौदयिक भाव से जीव कृष्ण प्रादि छह लेण्या वाला होता है ।।६।।' उदय में पाये हए कषायानुभाग के स्पर्धकों के जघन्य स्पर्धक से लोकर उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त स्थापित करके उनको छह भागों में विभक्त करने पर प्रथम भाग मन्दतम कषायानुभाग का होता है और उसके उदय से जो कषाय उत्पन्न होती है, उसका नाम शुक्ल लेश्या है। दूसरा भाग मन्दतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न हुई कपाय का नाम पद्मलोगया है । तृतीय भाम मन्द कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय तेजो लेश्या है । चतुर्थभाग तीब्र कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कषाय कापोत लेश्या है । पाँचवा भाग तीव्रतर कषायानुभाग का है और उसके उदय से उत्पन्न कपाय को नील लेश्या कहते हैं। छटा भाग तीव्रतम कषायानुभाग का है और उससे उत्पन्न कषाय का नाम कृष्ण लेश्या है। चुकि ये छहों ही लेश्याएँ कपागों के उदय से होती हैं, इसलिए ये प्रोदयिक हैं।
शङ्का--यदि कषायोदय से लेश्या की उत्पत्ति होती है तो बारहवे गुरणस्थानवर्ती क्षीणकषाय जीव के लेश्या के प्रभाव का प्रसंग पाता है ?
समाधान-सचमुच ही क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग पाता यदि केवल कपायोदय से लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती । किन्तु शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या है, क्योंकि यह भी कर्मबन्ध में निमित्त है अत: लेश्या औदयिक भाव है।'
१. धवल पु. ७ पृ. २३०। १०४-१०५।
२. "प्रोदहा भावेण ॥६॥" [धवल पु. ७ पृ. १०४] ।
३. धवल पु. ७ पृ.