Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गापा ५५१-५५२
लेण्यामार्गणा/६१७
नीललेश्या में विद्यमान किसी जीव के कृष्ण लेश्या प्रागई। उस कृष्ण लेश्या में सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहर्त काल तक रह करके भरण कर नीचे सातवीं पृथिवी (नरक) में उत्पन्न हुआ। वहां तैतीस सागरोपम काल बिताकर निकाला। पीछे भी अन्तर्मुहूर्त काल तक भावना के वश से वही लेश्या होती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त से अधिक तैतीस सागरोपम कृष्ण लेण्या का उत्कृष्ट काल होता है।'
कापोत लेण्या में वर्तमान जीव के मीलले श्या प्रागई। उसमें उत्कृष्ट अन्तमुहर्त रहकर मरा और पाँचवीं पृथिवी में (नरक में) उत्पन्न हुआ । वहाँ पर सत्तरह १७ सागरोपम काल नील लेश्या के साथ बिताकर निकला । निकलने पर भी अन्तमुहर्त तक बही लेण्या रहती है। इस प्रकार दो अन्तमुहतों से अधिक सत्तरह सागरोपम नोल लेण्या का उत्कृष्ट काल होता है।
तेजो लेश्या में विद्यमान किसी जीव के लेश्या काल क्षीण हो जाने पर कापोतलेश्या प्रागई । कापोतलेण्या में अन्नमर्त काल रहकर मरण करके तृतीय प्रथिवी (नरक) में उत्पन हमा। वहाँ पर कापोत लेश्या के साथ सात सागरोपम बिताकर निकला । निकलने के पश्चात् भी वही लेश्या अन्तमुहूर्त तक रहती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त से अधिक सात सागरोपम कापोत लेश्या का उत्कृष्ट काल होता है।
कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव तेज (पीत) पद्म व शुक्ल लेश्या वाला रहता है ।। १८०-१८१।।
खलासा इस प्रकार है-हीयमान पालेश्या में विद्यमान किसी जीव के अपनी लेश्या का काल क्षय हो जाने से तेजो (पीत) लेश्या आगई । पीत लेण्या में सर्व जघन्य अन्तर्मुहुर्तकाल रह करके कापोत लेण्या को प्राप्त हो गया ।
हीयमान शुक्ललेश्या में विद्यमान किसी जीव के लेश्या-काल क्षय हो जाने से पद्मलेण्या होगई। सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक पालेश्या में रहकर के तेजो (गीत) लेण्या को प्राप्त हो गया।'
वर्षमान पद्मलेश्या वाला कोई जीव अपनी लेपया का काल समाप्त हो जाने से शुक्ललेश्या वाला हो गया। वहाँ सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः पचलेश्या को प्राप्त हुआ, क्योंकि पद्मलेश्या के अतिरिक्त अन्य किसी लेण्या में जाना सम्भव नहीं है।'
इस प्रकार तीनों के जघन्य कहे गये।
उत्कृष्ट काल पीत लेश्या का साधिक दो सागर, पद्म लेश्या का साधिक प्रयारह सागर और शुक्ललेश्या का साधिक तेतीस सागर प्रमाण है ।।१८२।।
१. धवल पु. ४ पृ. ४५७ । २. धवल पु. ४ पृ. ४५८ । ३. धवल पु. ४ पृ. ४५८ | Y. "तेउलेस्सियापम्मलेस्सिया गुक्कले रिमया केचिरं कालादो हॉति? ॥१८०।। जहष्णरण मंतोमुहत्तं ।।१८१।।'' [धवल पु. ७ पृ. १७५] । ५. घबल पु. ४ पृ. ४६२। ६. धवल पृ. ४ पृ. ४६२ । ७. धवल पृ. ४ पृ. ४७२ । ८, श्रवल पु. ७पृ. १७५ ।