Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाणा ५५१-५५२
लेण्यामागेरगा।६१५
मोटा जगत्प्रत र प्रमाण होता है 1 तथा इतर का अर्थात उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग से समुद्घात को करने वाले केवली का कपाटक्षेत्र बारह १२ अंगुल मोटा जगत्प्रतर प्रमाण लम्बा चौडा होता है। ऋयोंकि वेदत्ता ममुद्घात को छोड़ कर जीव के प्रदेश तिगुण नहीं होते हैं । यह उपयुक्त कपाटसमुद्घात गत केवली का क्षेत्र सामान्य लोक प्रादि तीन लोकों के प्रमाणरूप से करने पर उन तीन लोकों में से प्रत्येक लोक के असंन्यात भाग प्रमाण है। तिर्यग्लोक के संख्यात भाग प्रमाण है और अढ़ाई द्रीप से असंख्यात गुरगा है।
प्रतर समुदघात को प्राप्त केवली जिन लोक के असन्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण बात बलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर लोक के शेष बहुभाग में रहते हैं । घनलोक का प्रमाण ३४३ घन राजू है । एक हजार चौबीस करोड़, उन्नीस लाख तेरासी हजार चार सी सत्तासी योजनों में एक लाख नौ हजार सात सौ साठ का भाग देने पर जो लब्ध पावे उतने योराणा ,२२६ । र यो के नाते और चातरुद्धक्षेत्र का घनफल होता है। इस वातरुद्ध क्षेत्र को घनलोक में से घटा देने पर प्रतर समुद्घात का क्षेत्र कुछ कम लोक प्रमारण होता है। प्रतर समुद्घात को प्राप्त केवली का यह क्षेत्र अधोलोक के प्रमाण रूप से करने पर कुछ अधिक अधोलोक के चौथे भाग से कम दो अधोलोक प्रमाण होता है। तथा इसे ही ऊर्ध्वलोक के प्रमाणरूप से करने पर अबलोक के कुछ कम तीसरे भाग से अधिक दो कर्वलोक प्रमाण होता है। लोकपुरणसमुद्घात को प्राप्त केवली भगवान् सर्वलोक में रहते हैं ।
लेश्यामों की जघन्य व उत्कृष्ट कालप्ररूपण। कालो छल्लेस्सारणं गाणाजीवं पडुच्च सध्यद्धा । अंतोमुत्तमवरं एवं जीवं पडुच्च हवे ॥५५१॥ प्रवहीरणं तेत्तीस सत्तर सत्तेव होंति दो चेव । अट्ठारस तेत्तीसा उक्कस्सा होति अदिरेया ॥५५२।।
गाथार्थ ... छहों लेश्याओं का नाना जीव अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहर्त मात्र है ।। ५.५१।। और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीम सागर, सत्सरह (१७) मागर, सात (७) सागर, दो (२) सागर, अठारह (१८) सागर व तैतीस (३३) सागर है ।। ५५२ ।।
विशेषार्थ---नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम से लेश्यामार्गणा के अनुसार कृष्णा लेण्या वाले, नील लेश्याबाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पालेश्यावाले और शुक्ल लेश्यावाले जीव सर्व काल रहते हैं ।।४०-४१।।' एक जीव की अपेक्षा नीनों अशुभ लेश्यावाले जीवों का जघन्य काल
१. धवल पु. ४ पृ. ५.। २. धवल पु. ४ पृ. ५० । ३. पवल पृ. ४ पृ. ५५ सत्तासीदिनदुस्सदमहरसतेमीदिलमग्न उरात्रीस । व उनीसदिय कोडिसहरसगुणियं तु गपदर । सट्ठी सत्तसएहि गावयमहस्सेगलक्खभजियं त् । सवं अशरुद्ध गरियं भरिशयं समासा ||१३६-१४०।।"[वि.मा.] ४, धवल पु. ४५.५६ । ५. "शारणानीवेण कालाणगमेण लेसाणचादेगा किण्हलेस्सिय-शीललेस्सिय-काउलेरिसय-तेउलेस्सिय-पम्मलेन्सियसुक्कैन स्मिया केचिरंकालादो होति ।।४।। सन्चद्धा ।।४१।।" धवल पु. ७ पृ. ४६२ व ४७४]