Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६१६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५१-५५२
अन्तर्मुहूर्त है ॥२८॥
जैसे--नीललेश्या में वर्तमान किमी जीव के उस लेश्या का काल क्षय हो जाने से कृष्णलेण्या हो गई, और वह उसमें सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः नील लेण्या वाला हो गया।
शङ्का-कृष्णलेषणा के पश्चात् कापोत लेश्या वाला क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कृष्णलेश्या से परिणत जीव के तदनन्तर ही कापोतलेश्यारूप परिणमन शक्ति का होना असम्भव है ।
हीयमान वृष्ण लेश्या में अथवा बर्धमान कापोत लेश्या में विद्यमान किसी जीव के नीललेश्या आ गई। तब वह जीव नीललेण्या में सर्व जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल रह करके जघन्य काल के अविरोध से यथासम्भव कापोत लेश्या को अथवा कृष्णलेश्या को प्राप्त हुआ; क्योंकि इन दोनों लेश्याओं के सिवाय उसके अन्य किसी लेण्या का यागमन असम्भव है। मिलाने ही नाचार्य डीयमान लेश्या में ही जघन्य काल होता है, ऐसा कहते हैं । इस प्रकार नील लेश्या का काल अन्तमुहुर्त प्राप्त होता है।
हीयमान नीललेश्या में अथवा तेजोलेश्या में विद्यमान जीव के कापोत लेण्या आगई। वह जीव कापोत लेश्या में सर्वजघन्य अन्तमुहर्त काल रह करके, यदि तेजोलेश्या से आया है तो नील ले श्या में और यदि नीललेण्या से पाया है तो तेजोलेश्या में जाना चाहिए । अन्यथा संक्लेश और विशुद्धि को श्रापूरण करने वाले जीव के जघन्य काल नहीं बन सकता है।
शङ्का-यहाँ पर योग परिवर्तन के समान एक समय जघन्य काल क्यों नहीं पाया जाता है ?
समाधान-महीं, क्योंकि योग और कपायों के समान लेण्या में लेश्या का परिवर्तन. अथवा थान का परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघात से एक समय काल का पाया जाना असम्भव है। इसका कारण यह है कि न तो लेश्यापरिवर्तन के द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में उस लेश्या के विनाश का अभाव है। तथा इसी प्रकार विवक्षित लेश्या के साथ अन्य गुणस्थान को गये हुए जीव के द्वितीय समय में अन्य लेश्या में जाने का भी अभाव है। न गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में अन्यगुणस्थान के गमन का अभाव है। न व्याघात की अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि एक समय में वर्तमान लेण्या के व्याघात का अभाव है । और न मरण की अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में मरण का प्रभाव है।
कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम, नील लेश्या का साधिक सत्तरह सागरोपम और कापोत लेश्या का साधिक सात सागरोपम प्रमाण है ।।२८५।।४
१. "गजीवं पड़तन जहणणग प्रतो मुद्दत्त ।।२८४।।'' [धवल पु. ४ पृ. ४५५] । २. धवल पु. ४ पृ. ४५६ । ३. धवल पु. ४ पृ. ४५६-४५७, कारण देग्यो धवल पु. ४ पृ. ४६८ का प्रथम शंका-समाधान । ४. "उवकम्मेगा तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोबमाणि सादिरेयारिख ।।२८५॥[धवल १.४ पृ. ४५७] ।