Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६१४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५५०
और उसका नत्र भाग (125) अर्थात् बारह १२ प्रमाणांगुल विष्कम्भ होता है। इसकी परिधि १२x१६ + १६
(22%
सैंतीस अंगुल और एक अंगुल के एक सौ तेरह भागों में से पंचानवे
३६
+---
११३
१
भाग प्रमाण ३७६ होती है।' परिधि प्राप्त करने का करणसूत्र
÷
व्यासं षोडशगुरिणतं षोडश सहितं त्रिरूपरूपैर्भक्तम् । व्यासं त्रिखितसहितं सूक्ष्मादपि तद्भवेत्सूक्ष्मम् ॥ १४ ॥ ३
- व्यास को सोलह १६ से गुणा करके पुनः सोलह जोड़ें, पुनः तीन एक और एक अर्थात् ११३ का भाग देकर व्यास का तिगुणा जोड़ देवें तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण या जाता है।
इस परिधिको विष्कम्भ बारह १२ अंगुल के चौड़े भाग अर्थात् तीन अंगुल से गुणित करने पर मुखरूप बारह अंगुल लम्बे और बारह अंगुल चौड़े गोल क्षेत्र के प्रतरांगुल होते हैं। इन्हें कुछ कम | आता है।
६५ १२
(
३७--X--×१४ राजू ११३
:).
४
चौदह राजुओं से गुणित करने पर दण्ड क्षेत्र का प्रमाण यह एक केवली दण्ड समुद्घात का प्रमाण है। इसको संख्यात से गुणित करने पर एक साथ समुद्घात करने वाले संख्यात केवलियों के दण्डक्षेत्र का प्रमाण श्रा जाता है ।
इस प्रकार जो क्षेत्र उत्पन्न हो उसे सामान्य लोक यादि चार लोकों से भाजित करने पर उन चार लोकों में से प्रत्येक लोक के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण दण्डक्षेत्र प्राता है । तथा उक्त दण्डक्षेत्र को मानुषलोक से भाजित करने पर असंख्यात मानुषक्षेत्र लब्ध आते हैं। इतनी विशेषता है कि प्रत्येकासन से 'दण्डसमुद्घात को प्राप्त हुए केवली का विष्कम्भ पहले कहे हुए बारह १२ अंगुल प्रमाण विष्कम्भ से ३६ × १६ + १६ १०८
तिगुणा होता है। उसका प्रमाण ३६ अंगुल है। इसकी परिधि
(24x24 +
:)
११३
सौ तेरह अंगुल और एक अंगुल के एक सौ तेरह भागों में से सत्ताईस भाग ( ११३३ ) प्रमाण है । *
+
एक
कपाट समुद्घात को प्राप्त हुए केवली का क्षेत्र लाने का विधान इस प्रकार है केवलीजिन पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर समुद्घात को करते हुए यदि कासन से समुद्घात को करते हैं तो कपाट क्षेत्र का बाहुल्य छत्तीस अंगुल होता है । यदि कायोत्सर्ग से कपाट समुद्घान करते हैं तो बारह १२ अंगुल प्रमारण बाहस्य वाला कपाट समुद्घात होता है । इनमें से पहले पूर्वाभिमुख केवली के कपाटक्षेत्र के लाने की विधि का कथन करने पर चौदह राजू लम्बे, सात राजू चौड़े और छत्तीस ३६ अंगुल मोटे क्षेत्र को स्थापित करके, उसे चौदह राजू लम्बाई में से बीच में सात राजू के ऊपर छिन्न करके एक क्षेत्र के ऊपर दूसरे क्षेत्र को स्थापित कर देने पर बहत्तर अंगुल मोटा जगत्प्रतर हो जाता है । कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित हुए केवली कपाट क्षेत्र चौबीस अंगुल मोटा जगत्प्रतर होता है। उत्तराभिमुख होकर पल्यंकासन से समुद्घात को प्राप्त केवली का कपाटक्षेत्र ३६ अगुल
१. मल पु. ४ पृ. ४६ । २. धवल पू. ४. ४२ ३. वल पु. ४. ४८-४९ । ४. घवल पु. ४ पृ. ४९ ।