Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१८८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४०
शुक्लध्यान व घातियाकर्मों का क्षय कदाचित् घटित नहीं हो सकता। इस प्रकार जोवनमुक्त जीवों के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। जीवनमुक्त जीवों (अहेन्ती) का अभाव होने से परममुक्त (सिद्ध) जीवों का भी प्रभाव हो जाएगा। जिस प्रकार वैदिकमत वाले संसारी जीवों की मुक्ति का प्रभाव मानते हैं वैसे ही महन्त के मत में भी मुक्ति के प्रभाव का प्रसङ्ग आ जाएगा। इसलिए मोक्ष के इच्छुक स्याहादियों को क्षपकश्रेणी में आहार आदि चारों संज्ञाओं का प्रभाव मानना चाहिए। इस प्रकार पाहारसंज्ञा का निषेध हो जाने से केवलियों के कवलाहार मुक्ति कैसे सम्भव है ? स्त्रियों (महिलापों) के परिग्रहसंज्ञा के सद्भाव के कारण क्षपक श्रेणी-ग्रारोहण का अभाव होने से स्त्रियों की मुक्ति कैसे सम्भव है ? परमागम में स्त्रियों के वस्त्रत्यागपूर्वक संयम का निषेध है । प्रागमान्तर- जिसमें श्वेतवस्त्र आदि का विधान बताया गया है, युक्ति-पागमप्रमाण से उस आगमान्तर का खण्डन हो जाने से वह पागमान्तर (अन्य आगम) प्रागमाभास सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार केलियों के कवलाहार का और स्त्री-मुक्ति का निषेध हो जाता है ।'
शङ्का-यदि ये चारों संज्ञाएं बाह्य पदार्थों के संसर्ग से होती हैं तो अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती जीबों के संज्ञाओं का प्रभाव हो जाना चाहिए ?
समाधान नहीं, क्योंकि अप्रमत्तों में उपचार से उन संज्ञानों का सद्भाव स्वीकार किया गया है।
अप्रमत्तसंयत जीवों के भय, मैथुन और परिग्रह ये तीन संज्ञाएँ होती हैं, क्योंकि असातावेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्तसंयत के आहारसंज्ञा नहीं होती, किन्तु भय आदि संज्ञानों के कारणभूत कर्मों का उदय सम्भव है। इसलिए उपचार से वहाँ भय, मथुन और परिग्रह संज्ञाएं हैं।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में संज्ञा प्ररूपणा नामक पंचम अधिकार पूर्ण वा।
* "मार्गणा-महाधिकार"*
मंगलाचरण धम्मगुणमग्गणायमोहारिबलं जिणं रगमंसित्ता । मग्गणमहाहियारं विविहहियारं भणिस्सामो ॥१४०॥
१. श्रीमदमयचन्द्रमूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका। २. तत्रोपचारतस्तत्सत्त्वाम्मुपगमात् (ध. पु. २ पृ. ४१३) ३. तिषिा सपणानो, प्रसादावेदणीवस्मुदीरणामावादो प्राहारसम्या अपमत्तसंसदस्स पत्थि । कारमा भूव कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भय-मेहुण-परिग्गाहसष्णा अस्थि । (ध. पु. २ पृ. ४३३)।