Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५७८/मो. सा. जीवकाण्ड
गाया ४६६-४६८ इसी प्रकार संख्यात व असंख्यात भेद प्रत्येक लेश्या के सिद्ध कर लेना चाहिए। जघन्य में भी अविभागप्रतिच्छेद अनन्त होते हैं अतः अविभाग प्रतिच्छेद की अपेक्षा अनन्त विकल्प हो जाते हैं।
गति में शरीर की अपेक्षा लेश्या का कथन णिरया किण्हा कप्पा भावाणुगया हु तिसुरणरतिरिये । उत्तरदेहे छक्कं भोगे-रविचंदहरिदंगा ॥४६६॥ बादर-पाऊते सुक्कातेऊय वाउकायाणं । गोमुत्तमुग्गवण्णा कमसो अवत्तवण्णो य ।।४६७॥ सन्वेसि सुहमाण कावोदा सय विग्गहे सुक्का । सव्यो मिस्सो देहो कयोदवणो हवे रिणयमा ॥४६॥
माथार्थ-सम्पुर्ण नारकी कृष्णवर्ण हैं। कल्पवासी देवों में भावलेश्या के अनुसार द्रव्यलेश्या होती है। भवनत्रिक, मनुष्य व तिर्यंचों में छहों द्रव्यलेश्या होती हैं और उत्तरशरीर की अपेक्षा भी गहों द्रव्यनगम होती है। मनोगमका का, मध्यमभोगभूमिया का और जघन्य भोगभूमिया का शरीर क्रम से सूर्य, चन्द्रमा और हरित वर्णं वाला होता है ।।४६६।। बादर जलकायिक व बादर तैजसकायिक को द्रव्यलेश्या क्रम से शुक्ल व तेजस (पीत) लेश्या होती है। वायुकायिक में घनोदधिवात, धनवात व तनुवात का वर्ण क्रम से गोमूत्र, मूग सदृश वर्ण और तीसरे तनुवात का बर्ण अव्यक्त है ।।४६७॥ सर्व सुश्मों की द्रव्य लेश्या कापोत है, विग्रहगति में सबकी द्रव्यलेश्या शुक्ल है। अपर्याप्त अवस्था में विद्यमान सभी जीवों की मिश्रदेह का वर्ण कापोत है ।।४९८||
विशेषार्थ -शरीर के आश्रय से छहों लेश्याओं की प्ररूपणा इस प्रकार है-तिर्यंचयोनिवालों के शरीर छहों लेश्या वाले होते हैं। कितने ही शरीर कृष्णलेश्या बाले, कितने ही नीललेश्या वाले, कितने ही कापोतलेश्या वाले, कितने ही तेज (पीत) लेश्या वाले, कितने ही पालेश्या वाले और कितने ही शुक्ललेश्या वाले होते हैं। तियच योनिनियों, मनुष्यों और मनुष्यनियों के भी छहों लेण्यायें होती हैं। देवों (वैमानिक देवों) के शरीर मूल निर्वर्तना की अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लश्याओं से युक्त होते हैं। परन्तु उत्तर निर्वर्तना को अपेक्षा उनके शरीर छहों लेश्याओं से संयुक्त होते हैं। देवियों के शरीर मूल निवर्तना की अपेक्षा तेजलेण्या से संयुक्त होते हैं, परन्तु उत्तर निवर्तना की अपेक्षा वे छहों लेश्यायों में से किसी भी लेश्या से संयुक्त होते हैं। नारकियों के शरीर कृष्णलण्या से संयुक्त होते हैं पृथिवीकायिकों के शरीर छहों वेश्याओं में किसी भी लेश्या से संयुक्त होते हैं। अपकायिक जीवों के शरीर शुवललेण्या वाले होते हैं। अग्निकायिक जीवों के शरीर तेजोलेश्या से युक्त होते हैं। वायुका यिकों के शरीर कापोत लेश्या बाले तथा वनस्पतिकायिकों के शरीर छहों लेश्या वाले होते हैं। सब सूक्ष्म जीवों के शरीर कापोतलेण्या से संयुक्त होते हैं। बादर अपर्याप्तकों का कथन बादर पर्याप्तकों के समान है । (किन्तु शुक्ल व कापोत दो द्रव्यलेश्या होती हैं धवल पु. २ पृ. ४२२) । औदारिक शरीर छह लेण्या से युक्त होते हैं। वक्रियिक शरीर मूल निवर्तना की अपेक्षा कृष्णलेण्या, तेजलेग्या, पद्मलंग्या व शुक्ल लेण्या से संयुक्त होता है (अथवा भवनत्रिक की अपेक्षा छहों