Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५८२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ४६१-५०६
जघन्य हानि होने पर तथा जघन्य लेप्रथा स्थान के ऊपर जघन्य वृद्धि होने पर स्वस्थान संक्रमण होता है । लेश्याओं के जघन्य स्थान में हानि होने पर नियम से परस्थान संक्रमण ही होता है ।। ५०५ ।। संक्रमण षट्स्थानवृद्धिरूप होता है। उन छह स्थानों के नाम व परिमाण श्रुतज्ञान का कथन करते हुए पूर्व में कहे जाचुके हैं || ५०६ ॥
विशेषार्थ - कषायों के उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं अर्थात् असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हैं उतने ही उदयस्थान हैं, जो हैं। इनमें से असम लेश्या रूप संक्लेश परिणाम हैं और असंख्यातवें भाग शुभ लेम्या रूप विशुद्ध परिणाम हैं। किन्तु सामान्य से संक्लेश व विशुद्ध दोनों ही परिणाम असंख्यात लोक प्रमारण हैं। इन ग्रहों लेश्याओं में उत्कृष्ट से जघन्य पर्यन्त और जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त षट्स्थानहानि व षट्स्थान वृद्धि होती है। अशुभ लेश्याओं में संक्लेश की हानि - वृद्धि होती है और तीन शुभ लेश्याओं में विशुद्धि की हानि - वृद्धि होती है । अर्थात् संक्लेश की उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर कापोत लेश्या के जधन्य अंश से मध्यम भ्रंश में और मध्यम अंश से उत्कृष्ट अंश रूप, पुनः नील लेश्या के जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट अंशरूप, पुनः कृष्णलेश्या के जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन होता है। इसी प्रकार विशुद्धि में उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर पीत लेश्या के जघन्य अंश से मध्यम अंशरूप और फिर मध्यम अंश से उत्कृष्ट अंश रूप, पुनः पद्म लेश्या के जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट अंश रूप, पुनः शुक्ल लेश्या के जधन्य, मध्यम व उत्कृष्ट अंशरूप परिणमन होता है। विशुद्धि की उत्तरोत्तर हानि होने पर शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट भ्रंश से पीत लेश्या के जघन्य अंश तक परिगमन होता है ।
परिणमन व संक्रमण का यह कथन मरण की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि मध्यम शुक्ल लेश्या वाला मिध्यादृष्टि देव अपनी आयु के क्षीण होने पर जघन्य शुक्ल लेश्यादिक से परिणमन न करके अशुभ तीन लेश्याओं में गिरता है। (धवल पु. ८ पृ. ३२२ ) ।
कौन लेश्या किस स्वरूप से और वृद्धि अथवा हानि के द्वारा परिणमन करती है, इस बात के ज्ञापनार्थ 'लेश्या परिणाम' अधिकार प्राप्त हुआ है । परिणामों की पलटन संक्रमण है उनमें पहले कृष्णलेश्या के परिणमन विधान का कथन करते हैं । कृष्ण लेश्या वाला जीव संक्लेश को प्राप्त होता हुआ अन्य लेश्या में परिणत नहीं होता है, किन्तु षट्स्थानपतित स्थानसंक्रमण द्वारा स्वस्थान में ही वृद्धि को प्राप्त होता है।
शङ्का - षट्स्थानपतित वृद्धि का क्या स्वरूप है ?
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समाधान – जिस स्थान से संक्लेश को प्राप्त हुआ है, उस स्थान से अनन्तभाग अधिक, असंख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक संख्यातगुणी अधिक असंख्यातगुणी अधिक और अनन्तगुणी अधिक लेश्या का होना, इसका नाम षट्स्थानपतित वृद्धि है।
उक्त कृष्णलेश्यावाला जीव विशुद्धि को ( संक्लेश की हानि को ) प्राप्त होता हुमा अनन्तभागहीन, असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यातगुणीहीन, असंख्यातगुणीहीन, अनन्तगुणीहीन
१. ध. पु. १६ पृ. ४८३ ।