Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५९२/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ५१८
(A) नोट-उक्त नशे के अनुमार मएम अंशों के नाम इस प्रकार हैं--१. उत्कृष्ट कापोत, कृष्ण नील मध्यम । २. कुष्षण नील कापोत मध्यम, जघन्य पीत। ३. कृष्गा नील कापोत पीत मध्यम जघन्य पन । ४. कृष्णादि पाँच मध्यम ; जघन्य शुक्न । ५, जघन्य कृष्ण तथा शेष ५ लेश्या मध्यम। ६. जघन्य नील तथा ४ लेश्या (कृष्ण बिना) मध्यम । ७. जघन्य कापोत तथा तीन शुभ लेश्या मध्यम । ६. मध्यम पम शुक्ल तथा उस्कृष्ट पीत । विशेष—इन उक्त घायुवन्ध योग्य ८ अपकर्षों में प्रादिनाम उत्कृष्ट कापोत से प्रारम्भ हुना तथा अन्तिम नाम का अन्त उत्कृष्ट पीत से है । अत: ऐसा कहा जाता है कि उत्कृष्ट कापोत से उत्कृष्ट पीत (तेजो) के बीच-२ ही अपकर्ष होते हैं। (देखें—गो. जी. गा. ५१८)
(B) लेश्यानों के क्रम को देवकर [यथा-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पन, शुक्ल (गो. जो. ४६३)]
सा भ्रम प्रायः सभी विद्वानों को भी हया है कि कापोत के उत्कृष्ट से तेजो. के उत्कृष्ट अंश के पूर्व तक की अवधि में तो दो (कापोत व तेज) लेश्याएँ ही आएंगी। किन्तु परमार्थतः ऐसा नहीं है । क्योंकि गो. जी. गा. ५१८ का नक्शा बड़ी टीका; महाधवल २ | पृष्ठ २७८ से २८१, धवल ८ पृष्ठ ३२० से ३५८ तथा गो, जी. गाथा २६० से २६५ इन सत्र स्थलों में एक मत से सभी श्यामों में प्रायू बन्ध कहा है।
(C) यह गो. जी. से सम्बद्ध क्रथन कर्मकाण्ड (बड़ी टीका) ज्ञानपीठ प्रकाशन में पृ. ८६१ (गा. ५४६) पर भी पाया है। यहाँ ८ मध्यमोश का प्ररूपण भिन्न मत से किया हुअा मासित होता है। उसके अनुसार तो ८ मध्यमांशों द्वारा १४ लेश्यास्थानों में से ठीक मध्य के ४ लेश्यास्थान ही गृहीत होते है। ऊपर बिन्दु A में लिखित ८ मध्यमांशों में से तृतीय से छठे तक के ४ मध्यमोश ही गृहीत होते हैं। उन्हें ही भेदविवक्षा से यहाँ ८ रूप से गिनाया है। यया–पन शुक्ल कृष्ण व नील इन ४ लेश्यामों के जघन्य अंश रूप ४ स्थान तथा ४ गति सम्बन्धी प्रायुबंध के कारण, नरक बिना ३ प्रायुबंध के कारण, मनुष्य-देवायु-बंध के कारण, देवायु-बंध के कारण; ये ४ । स्थान । इस तरह कुल ८ मध्यमांश हुए 1 यह कथन चिन्त्य है।
(D) प्रकरण (A) में लिस्त्रित = अपकों के नामों से यह भी स्पष्ट हो ही जाता है कि पाठ अपकर्षों में मात्र दो ही नहीं, छहों लेश्याएँ आ जाती हैं।
(E) श्लोकवातिक भाग ५ पृष्ठ ६३४ में तो ८ अपकर्ष ऐसे बताए हैं -कृष्ण तथा कापोत के मध्यवर्ती तथा पीत और शुक्ल के मध्यवर्ती = ८ मध्यम अश हैं। मध्यवर्ती इमलिए कहा है कि कृष्णलेश्या के कतिपय तीन अंशों में और कापोतलेण्या के कतिपय जघन्य अंगों में प्रायु नहीं बंधती है। इसी प्रकार शुभ लेश्याओं पीत के कतिपय जघन्य अंशों और शुक्ल लेश्या के कुछ उत्कृष्ट अंशों में आयुष्य कर्म को बंधवाने की योग्यता नहीं है। इसलिए प्रशुभ लेश्याओं के मध्य पड़े हुए चार अंश और तीनों शुभ लेप्रयासों के बीच पड़े हुए चार अंश ; इस तरह ८ मध्यम ग्रंश कहे जाते हैं । [माषा टोका]
(F) तीन [ " ऐम चिह्न से अंकित, देखो नक्शा] अायुबन्ध स्थान फिर भी ८ मध्यम अंशों में छूट जाते हैं । सो "*" सम्बन्धी तीनों नरकायु के ही बन्धस्थान हैं जो कि मध्यमकृष्ण लेया से बँधते हैं तथा इस मध्यम कृष्णलेश्या रूप अंशत्रय का "८ मध्यम लेश्यांश में परिवरिणत मध्यम कृष्ण लेण्या शब्द" द्वारा उपलक्षण से ग्रहगा हो जाता है। ऐसा हमारी बुद्धि में प्राता है ।
-जवाहरलाल जैन