Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६०२/गो. सा. जीवकाण्ड
माथा ५३६.५.४२
हैं। सर्व जीवराशि भी केवलज्ञान के अनन्तवें भाग है तो अशुभ लेश्या वाले जीव भी केवलज्ञान के अनन्त- भाग ही हैं। इसीलिए भाव की अपेक्षा केवलज्ञान के अनन्नवें भाग प्रमाण अशुभ लेण्या वाले जीव हैं।
___ कृष्णा, नील, कापोत लेश्या वाले जीवों में से प्रत्येक का द्रव्य प्रमाण अनन्त है। वे अनन्तानन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों के द्वारा अपहत नहीं होते । अर्थात् एक ओर तो अनन्तानन्त कल्प के समयों की राशि हो और दूसरी ओर अशुभ लेश्या जीवराशि हो। दोनों राशियों में एक-एक निकालने पर कालसमयराशि तो समाप्त हो जाए, किन्तु अशुभ लेपया वाली जीव राशि समाप्त नहीं होगी; यह अभिप्राय है।
क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त क्षेत्र प्रमारण हैं।"
तेजस्त्रिक अर्थात् तीन शृभ मेश्यानों के जीवों का प्रमागा तेउतिया सखेज्जा संखासखेज्जभागकमा ॥५३६ उत्तरार्ध । जोइसियादो पहिया तिरिक्खस पिणस्स संखभागो दु। सूइस्स अंगुलस्स य असंख भागं तु तेउतिर्थ ।।५४०।। बेस दछप्पणंगुलकदि-हिद-पदरं तु जोइसियमारणं । तम्स य संखेज्जदिमं तिरिक्खसगीरण परिमारणं ॥५४१॥ तेउदु असंखकप्पा पल्लासंखेज्सभागया सुक्का । श्रोहिअसंखेज्जदिमा तेउतिया भावदो होति ।।५४२३॥
गाथार्थ-तेज आदि तीन शुभ लेश्या बाले असंख्यात हैं। तेजो लेश्या के संख्यातवें भाग पद्यलेश्या वाले और पपलेपया के असंख्यातवें भाग प्रमाण शुक्ललेश्या वाले जीव हैं ।।५३६॥ ज्योतिषी देबों से कुछ अधिक तेज लेश्या बाले व संज्ञी तियंचों के संख्यातवें भाग पद्मलेण्या वाले हैं। सूच्यङ्ग.ल के असंख्यातवें भाग शुक्ल लेश्या वाले जीव हैं । यह तेजत्रिक लेण्या का प्रमाण है ।।५४०।। दो सौ छप्पन अङ्गल के (कदि) वर्ग से जगत्प्रतर को भाग देने से ज्योतिषी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है । इसके संख्यातवें भाग प्रमाण संज्ञी तिर्यच हैं । ।५४१॥ असंख्यात कल्पकाल प्रमाण तेजोलेश्या वाले और पालेश्या वाले जीव हैं । पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण शुक्ललेण्या वाले जीव हैं । अवधिज्ञान के असंख्यातवें भाग प्रमाण तेजत्रिक लेश्या वाले जीव हैं ।। ५४२।।
विशेषार्थ-तेजो लेश्यावाले द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा ज्योतिषी देवों से कुछ अधिक हैं । पर्याप्त काल में सभी ज्योतिषी देव तेजो लेश्या से युक्त होते हैं। तथा अपर्याप्त काल में वे ही देव कृष्ण, नील चौर कापोत लेश्या से युक्त होते हैं। वे अपयति ज्योतिषी देव अपनी पर्याप्त गशि के
१. रा. वा. ४२२/१०। २. तेउलेस्सिया दवपमाणेण केवडिया ?।।१४८।। जांघिसियदे वेहि सादिरेयं ।। १४६।। [घवल पु. ७ पृ. २६१] ।