Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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६१० / गो. सा. जीवकाण्ड
संख्यातवें भाग प्रमाण प्रायाम से क्षेत्र को स्पर्श करते हैं। सर्वत्र ऋजुगति से उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा विग्रहगति से उत्पन्न होने वाले जीव असंख्यातगुरणे होते हैं क्योंकि श्रेणी की अपेक्षा उच्छेणियाँ बहुत पाई जाती हैं।"
उपपाद पदगत तेजोलेश्या वाले जीवों का क्षेत्र प्राप्त करने के लिए अपवर्तना के स्थापित करते समय सौधर्म कल्प की जीवराशि को स्थापित कर उसमें पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अपने उपक्रमणकाल से भाग देने पर एक समय में उत्पन्न होने वाले जीव होते हैं। पुनः एक दूसरा पल्योपम का प्रसंख्यातवाँ भाग भागाहार स्वरूप से स्थापित कर एक राजू प्रमाण आयाम वाली उपपाद पद को प्राप्त जीवराशि का प्रमाण होता है । पुनः उसे संख्यात प्रतरांगुल प्रमाण राजुों मे गुणित करने पर उपपाद क्षेत्र का प्रमाण होता है ।
अथवा उपपाद पद की अपेक्षा निम्नलिखित प्रकार से भी क्षेत्र का निरूपण जानना चाहिए। यहाँ अपवर्तन के स्थापित करते समय सौधर्म राशि को स्थापित कर अपने उपक्रमण कालरूप पल्योपम असंख्यातवें भाग से भाग देने पर एक समय में वहाँ उत्पन्न होने वाले जीवों का प्रमाण होता है । पुन: प्रभापटल (सौधर्म स्वर्ग का चरम पटल ति. प. ८ / १६१ ) में उत्पन्न होने वाले जीवों के प्रमाण के आगमनार्थ एक अन्य पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग को भागाहार रूप से स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार उक्त भागाहार के स्थापित करने पर डेढ़ राजू प्रमाण ( प्रभापटल तक ति. प. ८/११८१३१-१३५, श्र. ७/४४० ) श्रायाम से उपपाद को प्राप्त जीवों का प्रमाण होता है । पुनः उसे संख्यात प्रतरांगुन मात्र राजुओं से गुणित करने पर उपपाद क्षेत्र का प्रमाण होता है ।
तीन अशुभलेश्याओं के स्वर्ग का कथन
फासं सध्यं लोयं तिट्ठाणे सुहलेस्सारणं ।। ५४५ उत्तरार्ध ।।
गाथार्थ - तीन अशुभलेश्याओं का तीन स्थान में स्पर्श सर्वलोक है | १५४५ उत्तरार्ध ।।
विशेषार्थ - क्षेत्र के कथन में सर्व मार्गास्थानों का श्राश्रय लेकर सभी वर्तमानकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन कर दिया गया है। अब पुनः इस स्पर्शनानुयोगद्वार से क्या प्ररूपण किया जाता है ? ऐसा प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि स्पर्शनानुयोग द्वार में भूत काल विशिष्ट क्षेत्र का स्पर्शन कहा गया है । ४
गाथा ५४५
कृष्ण लेण्या वाले नील वेश्या वाले व कापोत लेण्या वाले जीवों ने स्वस्थान, वेदना-कपायमारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों से प्रतीत व वर्तमानकाल की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्श किया है । बिहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिक समुयात पदों से अतीत काल में तीन लोकों के असंख्यातवें भाग तिर्यग्योक के संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीप से प्रसंख्यात गुणे क्षेत्र का स्पर्शन किया है। विशेषता इतनी है कि वैविथिक पद से तीन लोकों के संख्या भाग तथा मनुष्यलोक
१२६-१३० ।
१. धवल पु. ४ पृ. २. धवल पु. काल विमेसिदत्तं फोसणं वृच्चदे ।" [ श्रबन पु. ४. १४५ ] । सिद्ध" [धवल पु. ४ पृ.
१४६ ]
।
३. धवल पु. ७ पृ. ३५६ । “फोम रामदीद काल विसेसिद
४. "प्रदीदपदुपायमसि