Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१०४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५३१-५४२
तेजोलेश्यावाले तिर्यंच भी जगत्पतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं जो पचलेण्या से युक्त तिर्यच राशि से संख्यात गुग्गे हैं।' यहाँ पर जगत्प्रतर को भागाहार के सम्बन्ध में प्राचार्यों में मतभेद है इसलिए 'भापहार का सगा नहीं लिया गया। इस सम्बन्ध में धवल पु. ३ पृ. २३० से २३२ तक देखना चाहिए।
मनुष्यों में तेजोलेश्या पर्याप्तकों में ही सम्भव है, क्योंकि लक्ष्यपर्याप्त मनुष्यों में तो तीन अशुभ नेश्या होती है। मनुष्य पर्याप्त संख्यात हैं । अतः तेजोलेश्या वाले मनुष्य संख्यात हैं। इस प्रकार तेजो लेण्या वाले "देव, तिथंच व मनुष्यों को जोड़ने पर साधिक ज्योतिष देवराशि प्राप्त होती है ।
पद्मलेश्या वाले जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।।१५१॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों के अवहारकाल को संख्यात से गुरिणत करने पर संजी पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों का अवहार काल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर संजी पंचेन्द्रिय तियच तेजो लेण्या वालों का प्रवहार काल होता है । इसे संख्यात से गुणित करने पर पालेश्या वालों का प्रवहार काल होता है।' अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात प्रतगंगुलों का जगत्तर में भाग देने पर पद्मलेश्या वालों का प्रमाण होता है ।
शुक्ललेण्यावाले जीव द्रव्यप्रमाण से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमागा हैं ।।१५३।।' शुक्ल लेश्यावाले जीवों के द्वारा अन्तमुहर्त से पत्योपम अपहृत होता है ।।१५४॥ यहां अवहार काल असंख्यात प्रावली मात्र है। इसका पल्योपम में भाग देने पर शुक्ललेश्यावाले जीवों का प्रमाण होता है। इसका सारांश यह है--
तेजो लेश्यावाले, ज्योतिषी देवों मे कुछ अधिक है । पचलेश्यावाले संज्ञीपंचेन्द्रिय नियंचनी के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शुक्ल लेश्यावाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं।
इस विषय को स्पष्ट करने के लिए अल्पबहुत्व इस प्रकार है
शुक्ललेश्यावाले जीव सबसे स्तोक हैं ।।१७।। क्योंकि अतिशय शुभ लेण्यानों का समुदाय कहीं पर किन्हीं के ही सम्भव है। शुक्ल लेश्या वालों से पद्मलेश्या दाले असंख्यातगुणे हैं ॥१८०॥ गुणाकार जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग यानी असंख्यात जगश्रेणी हैं, क्योंकि वह गुणकार पत्योपम के असंख्यातवें भाग से गुरिणत प्रतरांगुल से प्रपवर्तित जगत्प्रतर प्रमाण हैं। पमलेश्यावालों से तेजो लेश्यावाले संख्यातगुणे हैं ॥१८१।। क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों के संख्यातवें भाग प्रमाण पद्मलेण्यावालों के द्रव्य का तेजो लेश्यावालों के द्रव्य में भाग देने पर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं।"
१. धवल पु. ३ पृ. ४६१ । २. धवल पुस्तक ७ पृ. २६२-२६३ । ३. पम्मलेस्सिया दम्बामाणेण केबडिमा? ।।१५०।। सपिया पंचिदिय तिरिक्ख जोरिणगीण संखेज्जाद भागो ।। १५१॥" [घवल पु. ७ पृ. २६३] व [पखल पृ. ३ सूत्र १६६ पृ. ४६२] ४. पवन पु. ३ पृ. ४६३ । ५. धबल पू पृ. २९३ मूत्र टीका। ६. सुक्कलेस्सिया दन्चपमाणेगा केवडिया ॥१५१।। पलिदोवमस्स प्रसखेज्जदि भागो।।१५३॥" [षवल पु. ७ पृ. २६३]। ७. "दादेहि पलिदोयममवहिरदि अंतोमुहुत्तेरण ।।१५४|| धवल पु. ७ पृ. २६४] ८. धक्स पु. ७ पृ. २६४। ६. रा. वा. ४/२२/१०। १०. घवल पु. ७ पृ. ५६६-५७० ।