Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गण्या ५४३, ५४५
लेश्या मार्गा/६०५
काल की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यत्र योनिनी असंख्यातासंख्यात श्रवसर्पिणी उत्सर्पिषियों से अपहृत होते हैं ||२०||' अर्थात् योनिनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की संख्या असंख्यात कल्प काल है । इसके संख्यातवें भाग पपलेश्यावाले जीव हैं अतः वे भी असंख्यात कल्प काल प्रमाण है । पद्मलेश्या वालों से संख्यातगुणे तेजोलेश्यावाले जीव हैं अतः उनका प्रमाण भी असंख्यात कल्प काल है। शुक्ल लेपयावाले जीव पह के असंख्यातवें भाग हैं।
अवधिज्ञान के जितने विकल्प हैं उसके प्रसंख्यातवें असंख्यात के भी असंख्यात भेद हैं । अतः इनमें हीन अधिकता
भाग प्रत्येक शुभ लेश्या वाले जीव हैं । पबहुत्व के अनुसार जाननी चाहिए ।
श्याओं का क्षेत्र
उवादे सव्यलोयमसुहाणं ।
सहासमुग्धादे लोयस्सा संखेज्ज विभागं
खेसं तु तेजतिये ।। ५४३ ॥
सुक्कस समुग्धादे प्रसंखलोगा य सथ्यलोगो य ।। ५४५ का पूर्वार्ध ॥
गाथार्थ - अशुभ लेश्या में स्वस्थान, समुद्यात तथा उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्र है । नेजत्रिक अर्थात् तीन शुभलेश्याओं का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग है ।। ५४३ || शुक्ल aver का समुद्घात की अपेक्षा लोक का प्रसंख्यातवाँ भाग, संख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक है ।।५४५ पूर्वार्ध ॥
विशेषार्थ - कृष्ण, नील व कापोत लेश्या का क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक है। तेज और पद्मलेश्या का क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग है। शुक्ल लेश्या का क्षेत्र स्वस्थान और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक का प्रसंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग व सर्वलोक है । अब धवल ग्रन्थ के आधार से क्षेत्र का कथन किया जाता है
शङ्का - क्षेत्र किसे कहते हैं ?
समाधान- जिसमें जीव 'क्षियन्ति' अर्थात् निवास करते हैं, वह क्षेत्र है । यह निरुक्ति अर्थ है । श्राकाश, गगन, देवपथ, गुहाक चरित (यक्षों के विचरा स्थान ) ये समानार्थक हैं । श्रवगान लक्षण, आत्रेय, व्यापक, आधार और भूमि के द्रव्य क्षेत्र के एकार्थक नाम हैं । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है। अथवा प्रयोजन के प्राश्रय से क्षेत्र दो प्रकार का है. लोकाकाश और अलोकाकाश । जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं, पाये जाते हैं वह लोक है। इसके विपरीत जहाँ जीवादि द्रव्य नहीं देखे जाते वह अलोक है । * अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है । मन्दराचल ( सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक, मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक, मन्दराचल से परिच्छिन क्षेत्र अर्थात् तत्प्रमाण क्षेत्र मध्य लोक है। "एत्थ लोगे ति बुत्ते सत्त रज्जूणं
१. घवल पु. ७ पृ. २५२ । २. रा. वा. ४ / २२/१० १ ३. "घम्मामा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये । आयसेि सो लोगो तत्तो परदो लोगुति ||२०|| [ बृहद् द्रव्य संग्रह ] |