Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५३८-५३६
लेण्यामागरपा/६०१
लेश्या के काल की शलाका प्राप्त होती है । शेप को तीसरे भमस्तुण्ड में मिलाने पर कापोतलेश्या के काल की शलाका प्राप्त होती है । अशुभ लेश्या वाली जीवराशि को सामूहिक काल अन्तमुहर्त से भाजित करके और अपनी-अपनी काल शलाका से गुणा करने पर अपनी-अपनी लेश्या का जीव द्रव्यप्रमाण प्राप्त हो जाता है, जो उपयुक्त हीन क्रम वाला है। अर्थात् कृष्ण लेश्या के द्रव्य प्रमाण से हीन नील लेश्या का जीव द्रव्य प्रमाण है और उससे भी हीन कापोत लेश्या का द्रव्य प्रमाण है।'
शङ्का-अशुभ लेश्या वाले जीव एकोन्द्रिय जोबों से कुछ अधिक कैसे हैं ?
समाधान-संसारी जीवराशि में एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं। द्वीन्द्रियादि जीव असंख्यात हैं। मब ही एकेन्द्रिय जीवों के अशुभ लेश्या होती है। इसलिए अशुभ लेण्या वाले जीवों का प्रमाण एकेन्द्रियों से कुछ अधिक है, यह सिद्ध हो जाता है ।
एकेन्द्रिय जीव क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं । अतः अशुभ लेश्या वाले जीव भी अनन्तामन्त लोक प्रमाण हैं। अनन्तानन्त लोकों के जितने प्रदेश हैं उतने अशुभ लेण्या वाले जीव हैं। अथवा एक लोक के प्रदेश असंख्यात हैं उनको अनन्तानन्त से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उनने मामलोम्या वाले जीव हैं। वे वासोतर है न हीन हैं।
काल की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव अनन्तानन्त अबसपिणी-उत्सपिरिणयों से अपहृत नहीं होते हैं । ' कहा भी है
एगणिगोदसरीरे दबापमाणदो विट्ठा ।
सिद्धहिं अणंतगुणा सम्वेण वितीवकालेण ॥१६६॥ [गो. जी.] --द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा सिद्धराशि से और सम्पूर्ण प्रतीतकाल के समयों से अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीर में रहते हैं।
अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो ससारण परिणामो ।
भाषकलङ्कासुपउरा णिगोदवासं ण मुखति ।।१९७॥ [मो. जी.] --ऐसे भी अनन्त जीव हैं जिन्होंने दुलेश्या रूप परिणामों के कारण अभी तक अस पर्याय नहीं पाई।
____ इन आर्षप्रमाणों से सिद्ध है कि एकेन्द्रिय जीव अर्थात् अशुभ लेश्या वाले जीव अतीत काल से अथवा अनन्तानन्त अवसपिरणी-उत्सपिणियों से अनन्तगुरणे हैं।
सर्वोत्कृष्ट संख्या केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की है जो उत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं । संसार में जितने भी द्रव्य-गुण-पर्यायें व शक्ति ग्रंश हैं, वे सब मिलकर भी केवलज्ञान के अनन्तवें भाग ही होते
१. श्रवल पु. ३ पृ. ४६६ । २. "खेत्तेगा अणंतातलोगा ।।६।।" [धवल पु. ७ पृ. २३८]। ३. "प्रांतागांताहि प्रासप्पिणिा-उस्सप्पिणीहि रण प्रबहिरंति कालेण ॥१६॥"[धवल पु. ७ पृ. २६८] ।