Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५६६/गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ५२७-५२८
मरकर भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों में, पृथ्वी, जल, बनस्पति जीवों में उत्पन्न होता है। कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के मश्यम अंश रूप परिणाम से अग्निकायिक, बायुकायिकों में उत्पन्न होते हैं। देव और नारकी अपनी-अपनी लेश्याओं के साथ मरण करके अपने-अपने योग्य मनुष्य व तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं।'
शडा--भवनत्रिक (भवनवासी. वाणब्यन्तर, ज्योतिषी) देवों के अपर्याप्त काल में तीन अशुभ (कृष्ण, नील, कापोत) लेश्या ही होती हैं। और पृथिवीकायिक जलकायिक व वनस्पतिकायिक जीवों के पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थानों में तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं । इनमें पीत लेश्या से मरकर जीव कैसे उत्पन्न होता है ?
समाधान-कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यच यदि भवनत्रिक या पृथ्वी-जल व वनस्पति में उत्पन्न होते हैं तो तीन अशुभ लेश्या के साथ मरण करते है। किन्तु जिन जीवों के पर्याप्त काल में लेश्यान्तर संक्रमण नहीं होता अर्थात् अन्य लेश्या रूप संक्रमण नहीं होता वे तो अपनी नियत लेश्या के साथ ही मरण करते हैं। मरण के अनन्तर समय में अन्य लेश्या रूप संकमण हो जाता है। मिथ्यादृष्टि भोगभूमिया के तीन शुभ लेश्या ही होती है और वह नियम से देवगति में जाता है। ऐसा जीव मरकर भवनत्रिका में उत्पन्न होता है तो उसके मरण समय अशुभ लेश्या तो हो नहीं सकती अतः वह पीत लेण्या में मरण कर (अर्थात् अन्तिम समय तक पीत लेप्प्या के साथ रह कर) भवनत्रिक में उत्पन्न होता है। और वहाँ प्रथमसमयवर्ती भवनत्रिक के नियम से अशुभत्रिक लेश्या हो जाती है।
भवनत्रिक देवों के और सौधर्म ईशान स्वर्ग के देवों के पर्याप्त अवस्था में नियम से पीत लेश्या होती है। ऐसे मिथ्याष्टि देव मरकर एकेन्द्रियों में अर्थात् बादर जलकायिक पर्याप्त व बादर पृथ्वीकायिक पति व प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं। कहा भी है ....
भाज्या एकेन्द्रियत्वेन देवा ऐशानतश्च्युताः ।।पूर्वार्ध १६६॥ भूम्यापः स्थूलपर्याप्ताः प्रत्येकाङ्गवनस्पतिः ।
तिर्यग्मानुषदेवानां जन्मयां परिकोर्तितम् ॥१५६॥ तत्त्वार्थसार अधिकार २] मिथ्यादृष्टि और सासादन भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ईशान देव एकेन्द्रियों में प्राते हुए बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर इनके पर्याप्तक जीवों में प्राते हैं।
इस प्रकार पीत लेश्या में मरण करने वाले जीव भवनत्रिक व बादर पर्याप्त जलकायिक बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक व बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं।
शङ्का-वादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, प्रत्येक वनस्पति अपर्याप्त
१. रा बा. ४ २२११० । २. बबल पु. २ पृ. ५४४ । ३. ध. २१५४६ । ४. घ. पु. ६ पृ. ४८१ मूत्र ११० क पृ. ४७८ गूत्र १७६ ।