Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ५२६-५३५
छठी पृथ्वी में कृष्गालेश्या, सातवीं पृथ्वी में परम कृष्ण लेश्या है ।। ५.२६।। मनुष्य व तिथचों में प्रोध भंग है अर्थात् छहों लेश्याएं हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के तीन (अशुभ) लेश्या हैं । असंही (पंचेन्द्रिय) के चार लेश्या और संज्ञी अपग्लि मिथ्याष्टि ध सासादन सम्बदृष्टि के तीन अशुभ लेश्या होती हैं ॥५३०।। भोगभूमिया अपयप्तिक सम्यग्दृष्टि के नियम से जघन्य कापोत लेण्या होती है, किन्तु पर्याप्त अवस्था में सम्यष्टि व मिथ्याष्टि दोनों के तीन शुभ लेण्याएँ होती हैं ।।५३१।। असंयतों के छहों लेश्याएँ होती हैं। देशविरत आदि तीन (देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत) के तीन शुभ लेश्या होती हैं। उसके आगे शुक्ल लेश्या ही होती है। प्रयोगकेवली (चौदहवां) गुणस्थान अलेश्या अर्थात लेश्या रहित है ।।५३२।। नष्ट कषायवालों (क्षीणकषाय अथवा प्रकषायी) के भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा लेश्या कही गई है। अथवा योगप्रवृत्ति की मुख्यता से वहाँ लेश्या होती है ॥५३३।। भवन प्रादि देवों में तीन (भवनत्रिक) के तेज (पीत) लेश्या, दो (सौधर्म व ऐशान) के पीत लेश्या, दो (सानत्कुमार-माहेन्द्र) के पीत व पद्म, छह (ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र) के पथ लेश्या, दो (शतार, सहस्त्रार) के पझ ब शुक्ललेश्या, तेरह (मानत, प्राणत, पारण. अच्युत तथा नव प्रैवेयक) के शुक्ल लेश्या तथा चौदह (नव अदिश और पाँच अनुत्तर) के परम शुक्ल अभ्या होती है ।।१३०-५३५।।
विशेषार्थ - नारकी जीवों के अशुभतर लेश्या होती है। तिर्यंचों के जो अशुभ कापोतलेश्या होती है उससे भी अशुभतर कापोत लेश्या प्रथम नरक में होती है। उससे भी अशुभतर कापोत लेण्या दूसरे नरक में होती है। तीसरे नरक के उपरिभाग में कापोत लेश्या और नीचे के भाग में नील लेश्या होती है। चौथे नरक में नील लेश्या होती है। पांचवें नरक के उपरिभाग में नील लेश्या और अधोभाग में कृष्णलेश्या होती है। छठे नरक में कृष्ण लेश्या और सातवें नरक में परम कृष्ण लेश्या होती है। ये लेश्याएं उत्तरोत्तर अशुभतर अशुभतर होती गई हैं। भवनबासी-व्यन्तरज्योतिषी देवों के अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेण्या अर्थात् कृष्ण-नील व कापोत लेश्या, पर्याप्त अवस्था में तेजो (पीत) लेश्या इस प्रकार चार लेश्याएं होती हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के संबलेश परिणामों के कारण नीन (कृष्ण-नील-कापोत) अशुभ लेश्याएं होती हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियचों के कृष्ण, नील, कापोत और पीत लेश्या होती हैं, क्योंकि असजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच के देवायु का बंध संभव है। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच व भनुष्यों में मिथ्याष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के ट्रहों ही लेश्याएं होती हैं। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन तीन के पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। व्रत ग्रहण करते ही अशुभं लेश्यायों का अभाव हो जाता है, क्योंकि पापों का क्रमशः एकदेश व सर्वदेशत्याग हो जाता है । अपूर्वकरण [पाठवें] गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्या ही होती है, किन्तु विशुद्धि की उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण शुक्ल लेश्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । अयोगकेवली के योग का भी प्रभाव हो जाने के कारण लेश्या का भी प्रभाव हो जाता है इसलिए प्रयोगको बली अलेश्य अर्थात् लेश्या रहित है।'
शङ्का-चौथे गुणस्थान तक ही प्रादि को तीन लेश्याएं (कृष्ण, नील, कापोत) क्यों होती
१. "नारका नित्याऽशुभतरलेश्या....' [त. सू. अमू ३]। ३/३/२]। ३. त. रा. ३/३/४। ४. रा. वा. ४/१२/१०।
२. "तियंग्यपेनोऽतिशय निर्देशः ।' | रा. वा.