Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ५२७-५२८
श्यामगंगा / ५१५
के) अधिस्थान
गाथार्थ - कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट ग्रंथ के साथ भरकर (सातवें (प्रतिष्टित स्थान इन्द्रक बिल) में, जघन्य ग्रंश के साथ मरकर पाँचवें नरक के तिमिस्र नामक अन्तिम इन्द्रक बिल में और मध्यम भ्रंश के साथ मरकर इन दोनों के मध्य में उत्पन्न होते हैं ।। ५२४ ।। नील लेश्या के उत्कृष्ट अंश के साथ मरकर पाँचवें नरक के अंधेन्द्रा (द्विचरम इन्द्रक बिल) में, जघन्य अंश के साथ मरकर बालुका पृथ्वी के सम्प्रज्वलित ( तीसरे नरक के अन्तिम इन्द्रक बिल) में और मध्यम अंश के साथ मरकर इन दोनों के मध्य में उत्पन्न होते हैं ।। ५२५ || कापोत लेश्या के उत्कृष्ट ग्रंथ के साथ मरकर तीसरे नरक के ( द्विचरम इन्द्रक बिल) संज्वलित में उत्पन्न होता है । जघन्य अंश के साथ मरकर ( प्रथम नरक का प्रथम इन्द्रक बिल) सीमन्त में और मध्यम अंग के साथ मरकर इन दोनों के मध्य में उत्पन्न होते हैं ।। ५२६ ।।
विशेषार्थ - सातवी पृथ्वी के इन्द्रक बिल के दो नाम हैं - अवधिस्थान, अप्रतिष्टित स्थान । ' कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अंश रूप परिणामों से मरकर सातवें नरक के प्रतिष्ठित नामक इन्द्रक बिल में उत्पन्न होता है । अर्थात् सातवें नरक में उत्पन्न होता है। कृष्ण लेश्या के जघन्य ग्रंश रूप परिणामों से मरकर पांचवें नरक के तिमिस्र नामक अध: ( अन्तिम ) इन्द्रक बिन में उत्पन्न होता है । कृष्ण 'लेश्या के मध्यम भ्रंश रूप परिणाम से मरकर हिमेन्द्रक बिल से लेकर महारौरव नामक नरक तक उत्पन्न होता है। नील लेश्या के उत्कृष्ट अंश रूप परिणाम से पाँचवें नरक के अंध इन्द्रक बिल को प्राप्त होता है । नील लेश्या के जघन्य अंश रूप परिणाम से बालुका नामक पृथ्वी के तप्त इन्द्रक बिल में जाता है । नील लेश्या के मध्यम भ्रंश रूप परिणाम से बालुका पृथिवी में त्रस्त इन्द्रक विमान से लेकर भपक इन्द्रक विमान तक उत्पन्न होते हैं । कापोत लेश्या के उत्कृष्ट अंश रूप परिणाम से बालुका प्रभा पृथिवी में संप्रज्वलित ( इन्द्रक बिल) नरक में जाता है । कापोत लेश्या के जघन्य श्रंश रूप परिणाम से रत्नप्रभा पृथ्वी ( प्रथम नरक) के सीमन्तक इन्द्रक बिल में जाता है । कापोतलेश्या के मध्यम भ्रंश रूप परिणाम से रोक इन्द्रक बिल से लेकर संज्वलित इन्द्रक दिल तक उत्पन्न होते हैं । *
फिचउक्कारणं पुरण मज्झ समुदा हु पुढवी ब्राउफदिजीवेसु हवंति किण्हतियाणं मज्झिमसमुदा सुररिया सगले सहि परतिरियं
भवरलगादितिये | खलु जीवा ।। ५२७ ।।
।
तेजवाजवियलेसु । जाति सगजोगं ।। ५२८ ।।
गाथार्थ - कृष्ण आदि (कृष्ण, नील, कापोत व पीत) चार लेश्याओं के मध्यम अंश से भरा हुआ जीव भवनकि, पृथ्वी, जल और वनस्पति जीवों में उत्पन्न होता है ।। ५२७|| कृष्ण त्रय लेश्या के मध्यम अंश से मरे हुए अग्निकायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं । देव और नारकी अपनी-अपनी लेश्या से मरकर अपने योग्य मनुष्य व तियंचों में उत्पन्न होते हैं ।। ५२८ ।।
विशेषार्थ - कृष्ण, नील, कापोत व तेज ( पीत) लेश्या के भव्यम अंश रूप परिणामों से
१. "अवधिस्थानं प्रतिष्ठितस्थानं वा " [ त्रिलोकसार गा. १५६ की टीका ] २. रा. दा. ४ / २२ / १० /