Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५८०/मो. सा. जीवकाण्ड
माया ४६६-४९८
जाती है तो उसका उत्तर यह है कि सौधर्म आदि देवों के भावलेश्या के अनुरूप ही द्रव्य लेश्या का प्ररूपण किये जाने से उक्त बात जानी जाती है। तथा देवों के पर्याप्त काल में तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्यामों के अतिरिक्त अन्य लेश्याएँ नहीं होती हैं इसलिए देवों के पर्याप्त काल में द्रव्य वी अपेक्षा तेज, पय और शुक्ल लेश्या होनी चाहिए?
समाधान - शंकाकार द्वारा कही गई युक्ति घटित नहीं होती । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-द्रव्य लेण्या अपर्याप्त काल में होने वाली भाव लेश्या का तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्त काल में अशुभ तीन लेश्यावाले उत्तम भोगभूमिया मनुष्यों के धवल वर्ण के अभाव का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा तथा तीन अशुभ लेश्या वाले कर्मभूमिया मिथ्यादष्टि जीव के भी अपर्याप्त काल में गौरवर्ण का प्रभाव प्राप्त हो जाएगा। इसी प्रकार पर्याप्त काल में भी पर्याप्त जीव सम्बन्धी द्रव्य लेश्या भावलेश्या का नियम से अनुकररा नहीं करती है क्योंकि वैसा मानने पर छह प्रकार की भाव लेण्याओं में निरन्तर परिवर्तन करने वाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्यों के द्रव्यलेश्या के अनियमपने का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। यदि द्रव्यलेश्या के अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाय तो धवल वर्ण वाले बगुले के भी भाव से शुक्ल लेण्या का प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवल वर्ण वाले ग्राहारक शरीरों के और धवल वर्ण वाले विग्रह गति में विद्यमान सभी जीवों के भाव की अपेक्षा शुक्ल लेश्या की आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि दृश्यलेश्या वर्ण-मामा नामकर्म के उदय से होती है, भावलेश्या से नहीं। इसलिए दोनों लेण्याओं को एक नहीं कह सकते, क्योंकि अघातिया और पुद्गलविपाकी वर्ण नामा नामकर्म, तथा घातिया और जीवविपाकी चारित्रमोहनीय कर्म, इन दानों की एकता में विरोध है । इसलिए यह बात सिद्ध होती है कि भावलेश्या द्रव्यलेश्या के होने में कारण नहीं है। इस प्रकार उक्त विवेचन से यह फलितार्थ निकला कि वर्ण नामा नाम कर्म के उदय से भवनवासी, वानभ्यन्तर और ज्योतिषी देवों के द्रव्य की अपेक्षा छहों लेश्याएँ होती हैं तथा भवनत्रिक से ऊपर के देवों के तेज, पन और शुक्ल लेश्याएँ होती हैं।'
जैसे पाँच वर्णवाल रसों से युक्त काक के कृष्ण व्यपदेश देखा जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीर में द्रव्य से छहों लेश्याओं के होने पर भी एक वर्णवाली लेश्या के व्यवहार करने में कोई विरोध नहीं आता है।
सम्पूर्ण कर्मों का विस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विग्रहगति में विद्यमान सभी जीवों के शरीर की शुक्ललेश्या होती है अर्थात् द्रव्यलेश्या शुक्ल होती है। शरीर को ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छह वर्ण बाले परमाणुओं के पुजों से शरीर की उत्पत्ति होती है, इसलिए उस शरीर की कापोत लेश्या है।'
अन्न वर्णाधिकार के अनन्तर आठ गाथानों में परिणामाधिकार व संक्रमण अधिकार कहा जाएगा
१. घवल पु. २ पृ. ५३२-५३५ । २. धवल पु. २ पृ. ५३५ ।
३. श्रवल पु. २ पृ. ४२२ ।