Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ५.१० ५९४
श्यामागंणा / ५८७
गाथार्थ - कृष्णश्या से संयुक्त जीव तीव्र क्रोधी, वैर को न छोड़नेवाला, गाली देने रूप स्वभाव से युक्त, दयाधर्म से रहित, दुष्ट और वश में नहीं आने वाला, यह कृष्णलेश्या का लक्षण है ||५०८ ||
विशेषार्थ - कृष्णलेश्या का कर्म कृष्णलेश्या से परिणत जीव निर्दय, झगड़ालू, रौद्र, चैर की परम्परा से संयुक्त, चोर, श्रसत्यभाषी, परदारा का अभिलाषी, मधुमांस व मद्य में आसक्त, जिन शासन के श्रवण में कान न देनेवाला और असंयम में मेरु के समान स्थिर स्वभाव वाला होता है ।" नील लेश्या: कर्म त्र लक्षण
।
।। ५० ।। २
मंद बुद्धिविहगो रिविणारी य विसयलोलो य माली मायी य तहा आलस्सो चैव भेज्जो य शिद्दाचरण बहुलो घणघणे होदि तिब्वसरणाय । लक्रमेयं भरियं समासदो गोललेस्सस्स ।। ५११ । । '
गायार्थ- कार्य करने में मन्द बुद्धिविहीन, विवेक से रहित, विषयलोलुपता, अभिमानी, भायात्रारी, श्रालसी, अभेद्य, निद्रा व धोखा देने में अधिक धन-धान्य में तीव्र लालसा, ये नीललेश्या के लक्षण हैं ।।५१० ५११।।
विशेषार्थ- 'नीललेश्या' जीव को विवेकरहित, बुद्धिविहीन, मान व माया की अधिकता से सहित, निद्रालु, लोभसंयुक्त और हिंसा आदि कार्यों में अथवा कर्मों में मध्यम अध्यवसाय से युक्त करती है । * जो काम करने में मन्द हो अथवा स्वच्छन्द हो, जिसे कार्य व कार्य की खबर न हो, जो कला व चातुर्य से रहित हो, इन्द्रियविषयों का लम्पटी हो, तीव्र क्रोध-मान- माया-लोभ वाला हो, आलसी हो, कार्य करने में उद्यम रहित हो, दूसरे व्यक्ति जिसके अभिप्राय को सहसा न जान सकें, प्रतिनिद्रालु हो, दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो, वह नीललेश्या वाला है, ऐसा जाना जाता है।
कापोत लेश्या : कर्म व लक्षण
रूसइ रिंगवर अण्णे दूतद्द बहुसो य सोयभयबहुलो ।
प्रसुपs परिभवइ परं पसंसये अप्पयं बहुसो ।।५१२ ।। णय पत्तियइ परं सो प्रयाणं विव परं पि मण्णंतो । थूसइ प्रभित्थुवंतो ग य जारणइ हारिगढ या १५१३ ।। मरखं पत्थे रणे देव सुबहुगं वि थुत्यमारणो दु । रंग गरइ कज्जाकज्जं लक्खरणमेयं तु काउस्स || ५१४ || *
१. धवल पु. १६ पृ. ४० २. धवल पु. १ पृ. ३८८, पु. ३. धवल पु १ पृ. ३०६ पु. १६ पृ. ४६१ ५. ये तीनों धवल पु. १ पृ. ३८६, धवल पु.
१६ पृ. ४९० प्रा. पं. सं. प्रा. पं. सं. अ. १ मा १४६ पृ. ३१ । १६ पृ. ४६१, प्रा. पं मं. अ. १ बा.
१ मा १४५ पू. ३१ । ४. धवन पु. १६ पृ. ४२७ ॥ १४७- १४२ हैं ।